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अन दशम्
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षोडशाभरण (अलंकार) (Ornaments)
राजा,
'अपराजित सूत्र' २३६ में और 'द्रविड शिल्प रत्नम्' अ. १६ में अलंकार विषयक चर्चा की गयी है। देवी-देवता, चक्रवर्ती, श्रीमंत वर्ग प्रादि के अलंकार विषयक द्रविड ग्रंथों में धौर भागम ग्रंथों में सविस्तृत वर्णन मिलते हैं। तदुपरांत, अंशुमन प्रभेदागम 'मानसार', 'शिल्प-मूत्र', 'पद्मसंहिता' और अन्य आगम ग्रंथों में आभूषणों के वर्णन किये गये है। द्रविड तंजौर के बृहदीश्वर के शिवमंदिर में अनेक अलंकारों का वर्णन उत्कीर्णित है, और उन अलंकारों में हीरा, मोती, मानिक लगाने की रीतियां भी वहां के स्थापत्य में उत्कीर्णित की गई हैं। लेकिन सभी प्रतिमाओं के लिए ये १६ ग्राभूषण अनिवार्य नहीं हैं। कई प्रतिमाओं में वे कम-ज्यादा मात्रा में दिखाई देते हैं। आभूषण के लिए कोई साम्प्रदायिक भेद नहीं है, काल भेद और प्रांत भेद स्वरूप भेद अलंकार कमी जास्ती दिखाई जाता है यह विशिष्ट बात मानी जानी चाहिए। जैन तीर्थंकर वीतरागी होने के कारण उनके कोई आभूषण नहीं हैं। परंतु, उनके यक्ष, यक्षिणी, प्रतिहार आदि की मूर्तियों को आभूषण पहनाये हुए होते हैं । हमारी भारतीय शिल्प कला पूर्व के जिन-जिन देशों में प्रचलित हुई हैं, वहां - जावा, कम्बोडिया, लंका, अंगकोरवाट आदि देशों के स्थापत्यों की प्रतिमाओं पर इसी प्रकार के आभूषण दिखायी देते हैं। इसका कारण यह है कि उनका स्थापत्य और मूर्ति विधान, भारतीय कुल की संतानें हैं ।
'अपराजित सूत्र' में, किस प्रदेश में किस प्रकार के आभूषणों की विशिष्टता है, वह भी वर्णित है। कान की बुट्टी के आभूषण को सौराष्ट्र में 'ठोलिया' कहते हैं। तमिल भाषा में कुण्डल को 'याली' या 'तोडा' कहते हैं। संस्कृत साहित्य में स्कंधमाला को बगल तक लटकती बताया गया है। गुप्तकाल की पल्लव प्रतिमाओं में स्कंध माला देखने को नहीं मिलती। लेकिन इलोरा, अहिलोल और चालुक्य राज्यकाल तथा चोल राज्यकाल की मूर्तियों पर यह स्कंध माला दिखायी देती है, इसी तरह बहुत प्राचीन मूर्तियों में कटि-सूत्र से जंघा तक की माला ( उरुद्दाम या मुक्त माला) दिखायी नहीं देती । द्रविड चौल राज्यकाल की और उसके बाद की मूर्तियों में वह दिखायी देती है। बदामी शिल्प में दोनों जंघा पर एक-एक पंक्ति और पेडू पर मध्य में तोरा लटकता है ।
६. उरुसून ७. केपूर ८. उदरबंध
मूर्ति विधान में कहे गये १६ आभूषण सभी काल में शिल्पित किये ही जाते हों, ऐसा नहीं है। गुप्तकाल की प्रतिमाओं में खास तरह के प्राभूषणों की विशिष्टता थी। प्रत्येक प्रान्त की प्रतिमाओं के आभूषण और वेश परिधान में वैविध्य मिलता है। किसी काल में कोई प्राभूषण कम-ज्यादा होते थे, उसके ऊपर से प्रतिमा का सर्जनकाल, और वह कौन से प्रान्त की थी, यह समझने में सुविधा रहती थी। 'अपराजित सूत्र' २३६ में १६ प्रकार के आभूषण वर्णित हैं। वे इस प्रकार हैं :
१. मुकुट - १ किरीट २ करंट ३ जटा मुकुट
९. छन्नवीर
२. कुंडल
१०. स्कंधमाला
३. उपग्रीवा
११. कटककल्लय, पादवलय
४. हिक्कासूत्र
५. ही माल
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१२. पाद जालक
१३. यज्ञोपवीत
१४. कटिब
१५. उरुद्दाम
१६. अंगुलीमुद्रा
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