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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंङ्ग : चतुर्थ हस्तमुद्रायें (Position of Hands ) हस्तमुद्राओं के लए तांत्रिक ग्रंथों में, ब्राह्मण क्रियमाण ग्रंथों में, नाट्यशास्र में, योग में और मागम ग्रंथों में विपुल साहित्य भरा पड़ा है। कई विद्वान मुद्राओंको तीन वर्ग में विभाजित करते हैं। वैदिक, तांत्रिक और लौकिक । वैदिक में कला की ६४ मुद्राये वर्णित हैं। तंत्र में १०८ मुद्रायें कही गयी है। महाराजा भोजदेव के 'समरांगण सूत्रधार' में मुद्रामों के विषय में तीन अध्याय प्रस्तुत किये है । उनमें मुद्राओंका विस्तृत वर्णन मिलता है । नृत्य और योग की ६४ हस्तमुद्रायें कही गई है। उनमें से प्रत्येक के नाम भी दिये गये है। हस्तमुद्रायें संकेतसूचक है । यस्त-मुद्रा के दो प्रकार कहे हैं : अंगुलि-मुद्रा और हस्तमुद्रा। हस्तमुद्रायें ६४, पादमुद्रायें ६ और शरीरमुद्रायें ९ कही है। और उन सबके और भी वर्ग हैं। एक हस्त की मुद्रायें २४, दो हाथ से होनेवाली मुद्रायें १३ और नृत्यमुद्रायें २१ कही है और उन सबके नाम भी दिये गये हैं। अंगुलीमुद्रायें : १ वरद हस्तमुद्रायें : १ कट्यवलंबित-कटिमद्रा २ अभय २ गजहस्त मुद्रा ३ तर्जनी ३ सिंहकर्ण मुद्रा ४ ज्ञानमुद्रा ४ करपुट मुद्रा-दंड मुद्रा अंगुलिमुद्रा के लक्षण १. वरदमुद्राः सीधे हाथ का पंजा नीचे की और रखकर, भक्त पर प्रसन्नता से वरदान देती मुद्रा को वरद मुद्रा कहते हैं। उदाहरणार्थ लोक्य, विजयादेवी ।। २. अभय मुद्रा : सीधे हाथ का पंजा खड़ा रखकर भक्त को अभय वचन देती मुद्रा को अभय मुद्रा कहतेहैं। उदाहरणार्थ त्रिपुरादेवी, पार्वती, ईश्वरी, मनेश्वरी । ३. तर्जनी मुद्रा : अंगूठे के नजदीक की अंगुली को तर्जनी कहते हैं। तर्जनी मुद्रा में तर्जनी सीधी होती है, और उसके बाद की तीनों उंगलियां मुड़ी हुई होती है। सूर्य के प्रतिहारोंकी यह मुद्रा होती है। ४. ज्ञान मुद्रा : उपदेश देती हाथ की अंगुलियों की मुद्रा को ज्ञानमुद्रा कहते हैं । अंगुलिमुद्रायें शिल्प और नृत्य कला में अंगुलि-मुद्रा का स्थान विशिष्ट है । अंगुलिमुद्रायें क्रिया की संकेत-सूचक (Symbols) बनकर मन के भाव प्रकट करती है। नृत्य में अंगभंगी, हस्तमुद्रा, अंगुलिमुद्रा, अांखें और पादचालन भावों के परिवर्तन प्रकट करते हैं। जबकि मूर्तियों में तो कोई एक ही विशिष्ट भाव प्रकट होता है । दृष्टि चलित न होने के कारण मूर्ति में एक ही समय पर एक ही भाव प्रकट हो सकता है। मूर्ति में एक ही स्थिर मुद्रा होती है। जब कि नृत्य में एक विशेष लाभ उसकी हलन-चलन की वजह से मिलता है। ही विशिष्ट भाव प्रकला , अंगुलिमुद्रा, प्रांखें और पादचायाको संकेत-सूचक (Symbole, For Private And Personal Use Only
SR No.020123
Book TitleBharatiya Shilpsamhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherSomaiya Publications
Publication Year1975
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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