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अङ्गः तृतीय
प्रतिमा का वर्ण और उसका वास्तुद्रव्य (Idol : Colour and Material Used)
हरेक मूर्ति के पृथक-पृथक वर्ण-रंग शिल्पशास्त्रों चित्रशास्त्रों और अन्य ग्रंथों में वर्णित है। यूं तो रंग का संबंध चित्र के साथ है, सो विशेषतः रंग चिनोपयोगी है। मूर्तिशास्त्र में रंग का उपयोग अतिअल्प मात्रा में होता है। कई देवताओं का वर्ण सुवर्ण रंग का है। उनकी मूर्ति पीले वर्ण के पत्थर में से बनाई जाती है । कई रक्तवर्ण, तो कई श्यामवर्ण, तो कई नीलवर्ण की मूर्तियां भी शिल्पशास्त्रों में वर्णित है। वर्ण के अनुसार ही मूर्तियां बनाने का प्राग्रह शास्त्रों में किया गया है । 'विष्णु-धर्मोत्तर' और 'अभिलाषितार्थ चितामणि' मादि ग्रंथों में प्रत्येक देव के स्वरूप अलग-अलग वर्गों के साथ वर्णित हैं। कई देवताओं के वर्ण उनके विशिष्ट गुणों के अनुसार निर्धारित किये गये हैं।
देव-प्रासाद में मूल नायक देवता की एक प्रमुख प्रतिमा उसके वर्णित वर्ण के अनुसार बनाने का आदेश मान्य रखना यजमान की श्रद्धा पर अवलंबित है। उदा० जैन संप्रदाय में पार्श्वनाथ की मूर्ति का वर्ण श्याम है, शिवमंदिरों में शिवलिंग का वर्ण विशेष रूप से श्याम ही होता है। सोलह विद्यादेवियों का वर्ण भी भिन्न-भिन्न है। श्याम, पीत, श्वेत आदि में जिस रंग का पाषाण प्राप्त हो सके, उस पाषाण में से प्रतिमा बनाईजाती है। कृष्ण, दुर्गा, कालिका, जिन पार्श्वनाथ आदि को श्यामवर्ण के कहा गया है। उनकी अनेक मूर्तियां श्याम वर्ण के पत्थर में बनी हुई है। मेघश्याम विष्णु, नीलांबर बलराम, रक्तवर्ण सूर्य, गौरवर्ण रोहिणी और यम तथा भैरव आदि को विकृत श्यामवर्ण काहा गया है। प्रमुख प्रतिमा को वर्णानुसार बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। अन्य प्रतिमाओं के लिए भी हो सके तो उन्हीं के वर्णानुसर पत्थर लेना चाहिए। फिर भी जहां यह संभव न हो, वहां वहीं के स्थानीय पाषाण में से प्रतिमाएं बनानी चाहिए। वे पत्थर के उपयोग का उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
भारत के अलग-अलग प्रदेशों में से प्राप्त पाषाण जिस वर्ण के होते हैं, उन्हीं के मंदिर और मूर्तियाँ बनती है। उत्तर भारत में . राजस्थान-मकराणा में श्वेत और गुलाबी रंग का संगमर्मर मिलता है । जैसलमेर, सौराष्ट्र और कच्छ के कई भागों में पीतवर्ण (सुवर्णवर्ण) का मारबल (संगमर्मर) प्राप्त होता है। मेवाड़, केसरियाजो में श्वेतवर्ण का मारबल मिलता है। डूंगरपुर और जयपुर के पास श्याम वर्ण का भेशलाना का पत्थर मिलता है। डूंगरपुर में श्यामवर्ण के बजाय कबूतर के रंग जैसा पत्थर मिलता है। उसे शिल्पियों ने 'पारेवा' पत्थर नाम दिया है। दक्षिण में ग्रेनाइट का पाषाण मिलता है। उसमें से श्याम मूर्ति बनती है।
उत्साही यजमान अन्य प्रदेशों में से अपनी जरूरत के अनुसार, उसी वर्ण का पत्थर बड़ी कठिनाइयों से प्राप्त करते हैं, और शान में वर्णित रंग की मूर्तियां बड़ी श्रद्धा से बनाते हैं, ऐसे, उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में से मिलते हैं।
प्रतिमा के लिए अच्छा, सख्त, सुचिक्कण हो सके ऐसा पाषाण पसंद किया जाता है। पाषाण की परीक्षा तीन प्रकार से होती है । १. पुलिंग, २. स्री लिंग, और ३. नपुंसक लिंग। जो पत्थर उत्तम आवाज दे वह पुलिंग, जो मध्यम आवाज करे वह स्री लिंग और जिसकी आवाज ही न हो वह नपुंसक लिंग। पुलिंग पाषाण में से देव मूर्तियां बनाई जाती हैं। सी लिंग पत्थर में से देवी की मूर्तियाँ, पीठिका और शिव की जलाघारी बनायी जाती है। और नपुंसक लिंग के पत्थर में से देव मंदिर, राजमहालय आदि बनाया जाता है। शिवमंदिर में इन तीनों पत्थरों का उपयोग होता है। नपुंसक लिंग से मंदिर, पुलिंग से शिवलिंग और स्त्री लिंग से जलाधारी-योनि या देवी मूर्तियां बनाई जाती है।
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