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मूर्तिपूजा
२. मथुरा शैली
कुशान काल मथुरा शैली की मूर्ति विधान का कला केन्द्र था। शुंग काल की कला और कुशानों के राज्याश्रय से इस मथुरा शैली का उद्भव हुआ था, ऐसा कई विद्वान मानते हैं ।
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कुशान काल के पश्चात नागभार शैली का काल आया। उस समय की मूर्तियों पर अशोक काल का प्रभाव है। नागभार शैली के बाद वाकाटको का राज्यकाल आया । गुप्तकालीन समय भारतीय कला में सर्वोत्तम माना जाता है। गुप्तकालीन शिल्पियों की अद्भुत शिल्पकृतियों में सर्वांग सुंदर रमणीयता, भावमाधुर्य, घर सुरूपता अब भी उस काल के अवशेषों में देखने को मिलती है। गुप्तकाल की शैली सभी संप्रदायों में एक सी दिखाई देती है ।
गुप्त काल के राजा कलारसिक और कला - कोविद होने से उनके राज्यकाल में ललित कला का बहुत अधिक विकास हुआ। गुप्तकाल को सुवर्णयुग भी इसी कारण कहा जाता है ।
गुप्तकाल के बाद ई.स. ६०० से ९०० तक के युग को पूर्व मध्यकाल कहा जाता है। उस काल में कन्नौज में सुप्रसिद्ध राजा हर्षवर्धन राज्य करते थे। चीनी यात्री ह्यु-एन-स्याँग भी उसी समय भारत की यात्रा पर श्राया था । गुप्तकाल की कला का प्रभाव गुप्त राजाओं के अस्त के बाद २००-३०० वर्ष तक उतना ही प्रबल बना रहा। भुवनेश्वर, कोणार्कक, खजुराहो, मालवा के परमार प्रासाद तथा कर्णाक राजाओं ने मूर्तिकला को जबरदस्त प्रोत्साहन दिया था। गुजरात, राजस्थान के चौहान, राठौड़, सोलंकी, पांड्य आदि राजाओं ने अपने राज्यकाल में शिल्पकला को बहुत प्रोत्साहन दिया था। तामिलनाडु, चोल और होयसल राजवंशों ने भी बड़े प्रासादों के अति भव्य निर्माण करवाये थे ।
उत्तर- मध्यकाल के बाद ईसा की चौथी सदी के आरंभ से अर्वाचीन काल तक मूर्तिकला राज्य और श्रीमंतों के प्रोत्साहन पर ही टिकी रही और विधर्मियों के आक्रमण के कारण शिल्पकला का विकास स्थगित हो गया। विधर्मी इसके लिए बहुत जिम्मेदार हैं। प्राचीन काल के स्थापत्यों का विनाश उत्तर भारत में ही विशेष रूप से हुआ ।
भारत के प्रत्येक प्रदेश में विशाल महाप्रासादों का जो स्थापत्य निर्माण हुआ, और अद्भुत मूर्तियों का जो सर्जन हुआ, वह विधर्मियों की धर्मांधता से १२वीं शताब्दी के बाद नष्ट हो गया और भव्य स्थापत्य कला का विकास मंद हो गया। ख़ास करके विधर्मी जहां-जहां रहे, वहां हिन्दू स्थापत्यों का विनाश हुआ। विशेषतः उत्तर भारत में। उनके पत्थरों या अवशेषों में से उन्होंने मस्जिदें, मकबरे, दरगाहें आदि तैयार करवाई ।
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उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में हमारी कला का नाश अपेक्षाकृत कम हुआ, लेकिन उसका विकास तो रुक ही गया।
देव मूर्तियाँ योग की भिन्न-भिन्न मुद्राओं में होती हैं। उनके वर्ण, वाहन, आयुध, आभूषण, आसन, आदि भिन्न-भिन्न शिल्प ग्रंथो में वर्णित है । इस तरह प्रतिमा के लांछन ( चिन्ह - प्रतीक) से या उसके परिकर से या आभरण से या उनके लक्षण स्वरूप से वह कौन से देव की प्रतिमा है, यह पहचाना जाता है। इसके अलावा हस्तमुद्रा, पादमुद्रा, शरीर मुद्रा और नृत्य भाव भी मूर्तिशास्त्र के ही अंग हैं। यहाँ हम क्रम से वह सभी अंगो की चर्चा करेंगे ।