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जैन प्रकरण
२०५
पश्चिम
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अशषद
343
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अष्टापद तलदर्शन
" सिह
लांच्छन साथ कहा हैं। उनमें प्राधान्य शार्वता चार जिन हैं।
१. ऋषभदेव लांच्छन नंदी २. चंद्रानन
" चंद्र ३. वारिषेण
" सूर्य या पाडा
४. वर्धमान तीर्थक्षेत्र पांच कल्याण का होता हैं। १. च्यवन कल्याणक देवलोक में से माता की कुक्ष में पधारता हैं। २. जन्मकल्याणक जन्म समये प्रभु को मेरुपर्वत पर इंद्रो उत्सव करते हैं। ३. दीक्षा कल्याणक संसार भोग का त्याग-दीक्षा उत्सव । ४. केवल पाने कल्याणक दीक्षांतथकी अंते श्रेष्ठ ज्ञान की प्राप्ति के बाद समवसरण पर बैठ के उपदेश देता हैं। ५. मोक्ष कल्याणपाक शरीर त्याग-देहासर्ग ।
ही कार में वर्णानुसार-चौबीस और ॐकार में पंचपरमेष्टि १ अर्हन, रसिद्ध, ३ प्राचार्य ४ उपाध्याय, ५ साधु यह पांच वर्णानुसार स्थापन किये हैं। चौबीस जिन प्रतिमा का स्वरूप एक ही होता हैं। मगर प्रतिमा के नीचे पीठीका में लांच्छन चौबीस अलग अलग होने से तीर्थकर की प्रतिमायें वह पहचानी जाती हैं।
१८ सहन कूटान्तर्गत १०२ तीर्थंकर की रचना पाँच भरतक्षेत्र और पाँच एरावन क्षेत्र ऐसे दस क्षेत्र की प्रतित वर्तमान अनागत ये तीनों की तीन चौबीस का ७२ तीर्थकर, ३६ महाविदेहका, २० विहरमान तीर्थंकर भरतक्षेत्र की चौबीस के पाँचपाँच कल्याणक की १२०- चार शाश्वत तीर्थकर मील के कुल १०२४ तीर्थंकर का पट्ट या तो स्तंभ की चारों ओर २५६ ४४-१०२४ तीर्थकर की रचना करनी चाहिये।
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