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भारतीय शिल्पसंहिता
ऐसे पाठ रतिकर पर्वत-चार दीर्घमुख पर्वत मध्य में, अंजन गिरि पर्वत मिल के कुल तेरह पर्वत हैं। प्रत्येक अंजनगिरि चारों दिशा में तेहे के समूह के मध्य में है। ऐसा चारों तरफ का अंजनगिरि का समूह कुल मिल के १३ x ४ = बावन कूट हैं।
प्रत्येक कूट पर चार द्वार से शोभित एक-एक चैत्य है। सब मिल के जिन बिब की संख्या दो सौ पाठ हैं (५२४४ - २०८)। तेरह तेरह के चारों दिशाओं के समूह के मध्य में मेरुपर्वत है।
अष्टापद रचना
प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव का निर्वाण वाद अग्निसंस्कार। अष्टापदपर्वत पर उनका पुत्र भरत चक्रवात ने 'सिंहनिषद्या' नामे प्रासाद की रचना वर्ध की रत्न (शिल्पी) पास कराई। रत्नजडित तोरण, द्वार, विशाल मंडप चारों ओर। मध्य में मणिपीठिका बनाई उन पर चौबीस बिब चारों ओर स्थापित किये।
अष्टापद सन्मुख दर्शन
भरत चक्रवतिये पर्वत का दातां तोड के अष्ट सोपान (पगथीया)बताया इसीलिये उनका नाम "अष्टापद" पडा। प्रासाद के मध्य में महामेरु जैसी वेदी-पीठ की चारों ओर जिनेश्वरी की स्थापना की। पूर्व दिशा में दो, दक्षिण दिशा में चार, पश्चिमे पाठ और उत्तर में दस ऐसे चौबीस जिन (२+४+८+१०-२४)बिंब की स्थापना की। सर्व बिब की दृष्टि समसूत्र में या स्तनसूत्र एक सूत्र में रखी।
जैनो में अतीत (भूत), वर्तमान और अनागत (भावी) चौबीसों का कम नाम और लांच्छन प्रादि जैन मागम ग्रंथों में कहा है। यह तीनों चौबीशी जंबुदीय में भरतक्षेत्र को कहा है-ऊपरांत महाविदेह क्षेत्र में। वर्तमान काल में विचरता। बीस विहरमान प्रभु उनका
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