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भारतीय शिल्पसंहिता
किया गया है । इन्द्र स्वर्ग के, और वायु, आकाश, वृष्टि, विद्युत आदि के अधिपति और पूर्व दिशा के दिक्पाल हैं । इन्द्र को तीन या सहस्र नेवाला कहा है। समुद्र मंथन से निकला हुआ सात सूंडवाला हाथी उसका वाहन है। वज्र उसका प्रमुख श्रायुध है। उसका वर्ण पीत 'देवतामूर्ति प्रकरण' और 'रूपमंडन' में वरद, वज्र, अंकुश और कमंडल को श्रायुध माना है। उसकी बायीं ओर सचि ( सूलोमा )
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स्तम्भ में इन्द्र प्रतिमा
इन्द्राणी को नीचे की ओर खड़ी किया जाता हैं। उसकी सेवा में अप्सरा और गंधर्व हमेशा होते हैं। उसके आयुध वज्र,
धनुषवाण और
होते हैं। उसे श्वेत वर्ण का और विनेवों कहा है। जैन लोग उसे तने हुए कंचन वर्ण का मानते हैं। 'बृहद संहिता' और 'विष्णु धर्मोत्तर' में इन्द्र चौदहवीं संख्या का चिन्ह वाचक ( प्रतीक ) है । 'अमरकोश' में इन्द्र के ३५ नाम वर्णित किये हैं ।
२. अग्नि :
वह अग्निकोण के दिशापति है। वैदिक देवों में उसका स्थान महत्त्वपूर्ण है । उसे धुमकेतू भी कहते हैं। उसके स्वरूप वर्णन में उसे तीन नेत्र, चार हाथ, दो दाढ़ीवाले मुख, तीन पैर, चार सींग वाला और सप्तशिला जैसा कहा गया है।
'संस्कार भास्कर' और 'श्री तत्त्वनिधि' में उसका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है: सात हाथ, चार सींग, सात जीभ, दो मुख, यज्ञोपवीत और तीन पैरयुक्त उसका चित्रस्वरूप वर्णित है। ऐसे विचित्र स्वरूप के कारण उसे यज्ञ-पुरुष के नाम से भी पहचाना जाता है ।
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