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अङ्ग : विंशतिम्
दिपाल
प्राचीन वैदिक साहित्य में दिक्पाल को महत्त्व का स्थान दिया गया है। प्राचीन साहित्य में चार दिशाओं के दिक्पालों में इन्द्र, यम, वरुण और सोम को प्रथम स्थान दिया गया है। उनके सूक्त और ऋचाएं वदों में हैं। उसके बाद के समय में विदिशा-विकोण के दिक्पालों में-अग्नि, नैऋति, वायु और ईश को स्थान देकर पाठ दिशापति देव के रूप में स्वीकार किये गये हैं। बाद में अधो पाताल के अनंत और ऊर्ध्व-आकाश के ब्रह्मा भी पिछले काल में दिशापति के रूप में माने जाने लगे। इस तरह १० दिक्पालों का पूजन होने लगा।
वैदिक और जैन ग्रंथों में इन सब दिक्पालों को लोकपाल भी कहा जाता है। प्राचीन मंदिरों के ब्राह्मभीति भाग को मंडोवर कहा जाता है। इस मंडोवर की जंघा में-उपांगों में अनेक देवों, देवियों, देवांगनाओं के साथ दिक्पाल की मूर्ति भी उत्कीर्ण होती है। वहां दिक्पालों की मूर्तियों को दिशा के अनुसार स्थान दिया जाता है। मंदिर के कक्षासन की वेदिका में, स्तंभों के जगती-वितान (गुंबद) में भी कभी-कभी दिक्पालों की मूर्तियां होती हैं।
आठ दिशा-विदिशा के उपरांत, अधो-पाताल में अनंत का स्थान, पश्चिम-नैऋत्य के मध्य में और ऊवाकोश में ब्रह्मा का स्थान, पूर्व और ईशान के मध्य में शास्त्रकारों ने निश्चित किया है। लेकिन इन दो दिक्पालों की मूर्तियां मंदिर के प्रासादों में कम दिखाई देती
हिन्दू और जैन पूजाविधि संग्रहों की तरह १० दिकपालों का भी पूजन किया जाता है । दिक्पालों की मूर्तियों के सपत्नीक स्वरूप बनाने के उल्लेख 'विष्णु धर्मोतर' तथा अन्य पुराण प्रादि ग्रंथों में मिलते हैं। लेकिन ऐसे सपत्नीक दिक्पालों के स्वरूप बहुत कम दिखाई देते हैं । देलवाड़ा के चौमुख मंदिर में और डीसा के सिद्धांबिका के मंदिर में ऐसे सपत्नीक दिक्पालों के स्वरूप मिलते हैं। स्त्री और पुरुष दोनों दिक्पालों के वर्ण, आयुध, वाहन और भुजा एकसे करने का आदेश है।
दिपालों को किरीट, मुकुट, कुंडल आदि आभूषण पहनाने चाहिये । जैनों के 'निर्वाण कलिका' और 'प्राचार दिनकर' में दिक्पालों के स्वरूप दो हाथ के कहे हैं। पारस्कर गृह्यसूत्र, अग्नि, मत्स्य, विष्णु धर्मोत्तर, बृहसंहिता, श्रीतत्वनिधि, देवतामूर्ति प्रकरण, अंशुमद भेदागम, पूर्वकारणागम्, द्वेयाश्रय अपराजित सूत्र, शिल्परत्नम्, रूपमंडन, और अभिलाषितार्थ चिंतामणी ग्रंथों में दो या चार भुजायें, वाहन, आयुध, वर्ण आदि संबंधी भिन्न-भिन्न मत प्रदर्शित किये गये हैं।
दिक्पालों के स्वतंत्र मंदिर ( वायुदेव के अतिरिक्त ) कहीं देखे नहीं जाते। पूजन-विधि के समय दिक्पालों के नाम के साथ उनके एक प्रमुख प्रायुध का भी उच्चार किया जाता है । दिक्पालों के मूर्तिस्वरूप में प्रादेशिक भेद कहीं कहीं पाये जाते हैं। दस दिक्पालों का वर्णन
पूर्व दिशा के और स्वर्ग के देवों में वह अधिपति माना जाता है। वेदों में इन्द्र, अग्नि और सूर्य के स्वरूपों की स्तुति करते त्रिमूर्ति की कल्पना हुई है। बाद में उन स्वरूपों का परिवर्तन होकर इन्द्र को ब्रह्मा, अग्नि को रुद्र और सूर्य को विष्णु के रूप में ग्रहण
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