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प्रस्तावना
xiii
मण्डन'का अनुवाद मैंने शुरू किया था। उसमें बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। लेख और प्रत्यक्ष प्रयोग (क्रिया) का मेल बिठाने में थोड़ी दिक्कत पड़ती थी, ऐसे समय पर पूर्वजों के बनाये नकशे बहुत काम देते। ग्रन्थों के वाचन-मनन के साथ मेरे अध्ययन की गाड़ी आगे बढ़ती रही।
बीच में एक साल के लिये मैं बम्बई गया था। कुदरत शायद मेरी कसौटी करना चाहती थी।सं. १९७९ (वि.१९२३) में मैं शारीरिक अस्वस्थताके कारण स्व.बड़े भाई रेवाशंकरजी के पास रहकर एक साल तक खंभात में व्यवसाय करताथा, दरम्यान सौभाग्य से मुझे अम्बाजीकुंभारिया के प्राचीन मन्दिरों के जीर्णोद्धार का काम मिला अथवा यों कहिये सौंपा गया। वहाँ के प्राचीन मन्दिरों का निर्माण और उनकी कला ये दोनों मेरे अध्ययन-संशोधन में काफी सहायक हुए। वहाँ मुझे अपना ज्ञान बढ़ाने की अच्छी सुभीता मिली। करीब पाँच वर्ष मैं वहाँ टिक गया, उस दरम्यान मैने 'क्षीरार्णव' और 'दीपार्णव' जैसे कठिन ग्रन्थों का संशोधन किया। मेरे अनुवाद के कार्य को भी अच्छा वेग मिला। रूपमण्डन, प्रासादमंजरी, वास्तुसार का अनुवाद मैंने यहीं किया। अलबत्ता, संस्कृतभाषा का मेरा ज्ञान जो मर्यादित था, इसलिये मैने यह सारा साहित्य पेन्सिल से ही लिखा था, शिल्प के पारिभाषिक शब्दों का अनुवाद करना तो अच्छे महामहोपाध्याय के लिये भी मुश्किल था। कुंभारिका के निवास दरम्यान मेरी पारिवारिक परिस्थिति भी अच्छी हो गई थी।
बम्बई की रॉयल एशियाटिक लायब्रेरी (पुस्तकालय) से 'वृक्षार्णव' जैसे एक अद्भुत ग्रन्थ के कुछ अध्याय मैंने प्राप्त किये। उनमें से सांधार महाप्रासाद के पाठ और देवांगनाओं के स्वरूपलक्षण के अध्याय मिले।
सं. १९८६ से १९९१ (घि. १९३० से १९३५) तक के पाँच वर्ष के कदमगिरि के निवास दरम्यान उपर्युक्त सारे ग्रन्थों का पूरा अनुवाद, संशोधन-परिवर्तन-परिवर्धन के साथ पक्की कापियों में (फैर) लिख लिया था।
सं. १९९१ (दि. १९३५)से मैं अपने जन्मस्थान पालीताना में रहने लगा। उस दरम्यान मैने बम्बई, वेरावल,जामनगर, राजकोट, गु. पाटण, पालीताना (जलमन्दिर, आगममन्दिर), सुरेन्द्रनगर, प्रभासपाटण, भावनगर, जूनागढ़, अहमदाबाद (साबरमती), आदि शहरों में और उनके अगलबगल के गांवों में, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, बंगाल, केराला आदि प्रदेशों में करीब सौ से भी अधिक बडेबडे मन्दिरों का निर्माण किया। इनमें से बहुत से प्रासाद बहुत विशाल और भव्य बने हैं। बावन जिनालय आदि मन्दिर एक लाख से लेकर पाँच, दस, बीस लाख रुपयों का खर्च करके सुन्दर कलामय ढंग से बनाये गये हैं। इसके अलावा ग्यारहवीं शताब्दी के कुंभारियाजी के कलापूर्ण मन्दिरों का जीर्णोद्धार और सेठ अरविन्दभाई मफतलाल के द्वारा करवाया गया 'शामलाजी' मन्दिर का जीर्णोद्धार-पुनरुद्धार ये सारे कार्य किये हैं। शामलाजी मन्दिर का काम बारहवीं शताब्दी की एक प्रतिकृति है। उस काम में करीब आठ लाख रुपयों का खर्च किया गया है। साथ में मेरा ज्येष्ठ पुत्र बलवंतराय था।
सं. २००६ (वि. १९४८) में स्वतंत्र भारत के उपप्रधानमंत्री श्री. वल्लभभाई पटेल ने सोमनाथ के प्राचीन मन्दिर के नवनिर्माण के विषय में विचारणा करने के लिये निमंत्रण देकर दिल्ली बुलाया था। सोमनाथ के साधार महाप्रासाद का निर्माण उस विषय के पूर्ण अभ्यासी के सिवा दूसरे के द्वारा करना मुश्किल था। लोग कहते हैं कि हमारे ही भारद्वाजगोत्री पूर्वजों ने इस प्राचीन मन्दिर का निर्माण किया था। मेरे करीब पैतीस वर्ष के अभ्यास और अनुभव ने इस भगीरथ कार्य में अच्छी सहायता दी, इसको मैं परमात्मा की पूर्ण कृपा मानता हूँ। सोधार महाप्रासाद की रचना करीब सातसौ वर्षों से बन्द है, इसलिये उसका ज्ञान प्रायः विस्मृत सा हो गया है। सतत अभ्यास के कारण मैं यह कार्य कर सका इसलिये मैं अपने पापको ईश्वरकृपासे धन्य मानता हूँ।
सोमनाथ के मन्दिरनिर्माणकार्य के दरम्यान भारत के प्रधानमंत्री, प्रान्तीय मुख्यमंत्रीगण, महान नेतागण, गवर्नर और देशविदेश के विशेष रूप से युरोप-अमरीका के विशिष्ट व्यक्तियों से कभी कभी मिलने का अवसर प्राता था। वे हम लोगों के प्रति पूर्ण सद्भाव रखते थे। सम्मान की दृष्टि से हमें देखते थे। श्री. सरदार वल्लभभाई पटेल, श्री. जामसाहब, श्री. कनैयालाल मुनशी, श्री. गाडगीळ, श्री. ढेबरभाई आदि के साथ हमेशा संपर्क बना रहता।
श्री. सोमनाथ का काम चालू था, उसी समय धि. १९५८ के अरसे में श्री. बिरलाजी के प्रतिनिधि श्री. नवेटियाजी से सोमनाथ मन्दिर में मेरी प्रथम भेंट हुई। श्री.बिरलाजी की इच्छा के अनुसार कल्याण-सेन्चुरी में विठोबा, लक्ष्मीनारायण मन्दिर की एवं एक पहाड़ी पर 'पांचपद' के गूढ मण्डप और नृत्यमण्डपवाले एक भव्य विशाल प्रासाद की रचनाहुई। उत्तरप्रदेश में वाराणसी के पास रेणुकूट की एल्युमीनियम फैक्टरी में एक पहाड़ी पर उमामहेश का कलामय मन्दिर बनाया और उड़ीसा के भुवनेश्वर के राजरानी मन्दिर का प्रतिकृतिरूप प्रासाद करीब बीस लाख रुपयों की लागत से बनाया। मध्यप्रदेश में उज्जैन के पास नागदा में ग्वालियर रेयोन में शेषशायी भगवान का मन्दिर, जो कि ग्वालियर के सहस्रबाहु मन्दिर की प्रतिकृतिरूप है, बारह फीट ऊँचे प्लेटफॉर्म पर करीब पैतीस लाख रुपयों की लागत पर बन रहा है। यह सर्व स्थापत्यको स्व. बलवंतरायका सहयोग था। उद्योगपति श्री. गोयंकाजी की ओर से फिलहाल कलकतेमें भव्य शिवालय का निर्माण हो रहा है। भारत के उद्योगपति श्री. अरविन्दभाई मफतलाल ने उसी तरह महाराष्ट्र के सातारा जिले के चाफल गाँव में करीब पन्द्रह लाख रुपयों की लागत से रामचन्द्रजी का भव्य मन्दिर बनाया है । इस कार्य में मेरा पौत्र चंद्रकान्त साथ में था।
मेरे जेष्ठपुत्र बलवन्तराय बारबार इस ग्रन्थ के प्रकाशन की प्रेरणा और प्रोत्साहन देते रहे। वे शिल्पशास्त्र के अच्छे अभ्यासी थे। उन्होंने बम्बई, कल्याण, रेणुकूट, डाकोर, अहमदाबाद, नागदा, शामलाजी, पालीताना आदि स्थानों पर कलामय मन्दिरों के निर्माण
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