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प्रस्तावना
करते थे। ये सभी भारद्वाजगोत्र के स्थपति थे। उपर्युक्त अर्जुनदेव, अम्बाराम, मंगलजी, लाधाराम, रामजी, रणछोड़, भवानभाई और ओघड़भाई ये सब इस ग्रन्थ के लेखक के उत्तरोत्तर पिता, पितामह, प्रपितामह आदि थे। मेरे बड़े भाई स्वर्गीय भाईशंकरभाई ने सौराष्ट्र और महाराष्ट्र में कई मन्दिरों का निर्माण किया है। मेरे जेष्ठ पुत्र बलवन्तराय ने शिल्पशास्त्र का अच्छा अध्ययन किया है। उसने जैनियों के एवं बम्बई (कल्याण) में बिरलाजी द्वारा प्रायोजित तथा रेणुकूट के भव्य मन्दिरों का निर्माण किया है।
सं. १९०० में अहमदाबाद के हठीसींग के बावन जिनालयों का निर्माण प्रेमचन्दजी सोमपुरा ने किया था।
अठारहवीं शताब्दी में पालीताना में शामजी गोरा ने शव॑जय पहाड़पर 'उन्नत चोमुख' नामक विशाल, भव्य शिखिर थोडासा बनाया था, जो बाद में १८६० में जसकरणजी ने पूरा किया।
जैनपेढी के स्थपति नथुभाई गणेशजी और उनके पुत्र खुशालदास ने शबंजय पहाड पर के एवं पालीताना शहर के कुछ मन्दिरों का निर्माण किया था। उन्हीं के कुल के धरमशी और तुलजाराम मूर्ति विधान करने में मूर्ति का तादृशरूप बनाने में कुशल थे।
अभी अभी करीब पिछले पचहत्तर वर्षों में पालीताना में प्राणजीवन और वीसनगर में प्रल्हादजी तथा नाथुराम अच्छे स्थपति हो गये। उनको शिल्प का शास्त्रीय ज्ञान भी अच्छा था। वढवाण के तुलसीदास और अम्बाराम ने 'प्रासादमन' के प्रथम अध्याय का एवं 'केशराज', ग्रन्थ का प्रकाशन किया था। उनके पुत्र जगन्नाथ ने भी 'बृहत् शिल्पशास्त्र' नामक मौलिक ग्रन्थ तीन विभागों में प्रकाशित किया था। पालीताना में वेलजी अनोपराम और भाईशंकर गौरीशंकर हो गये, जिनको क्रिया का बहुत अच्छा ज्ञान था। उन्होंने भी कई मन्दिरों का निर्माण किया था। मेरे स्वर्गीय मित्र नर्मदाशंकरभाई बहुत कुशल स्थपति थे। उन्होंने कई कलामय मन्दिरों का निर्माण तोकियाही, विशेष में उन्होंने 'शिल्परत्नाकर' नामक एक बड़े शिल्पग्रन्थ का प्रकाशन भी किया। गायकवाड सरकार ने उनको अपने यहाँ स्थान दिया था।
राजस्थान-जावाल के श्री अचलाजी और ताराचंदजी, उनके बाद चांदोर के सरमेलजी और सादड़ी के चम्पालालजी आदि ने जैन मन्दिरों का निर्माण किया है।
करीब साठसत्तर वर्ष पहले डुंगरपुर-बांसवाडा के गुलाबजी और ध्रांगध्रा के हरिशंकरजी कुशल मूर्तिकार थे। वे तादृश्य स्वरूप निर्माण करने की शक्ति-समझ रखते थे। गुलाबजी स्वभाव के मस्त थे, वे करोडपति की भी कभी पर्वाह नहीं करते थे। उन्होंने अहमदाबाद में 'यतासाकी पोल' में प्रारस का सुन्दर जिनमन्दिर बनाया है। पिछली जिन्दगी में वे इडर की पहाड़ियों की गुफा में रहते थे। प्रसिद्ध शिल्पी जगन्नाथ अम्बाराम उनको अपना गुरू मानते थे। केन्वास पर ऑईल पेइन्ट किया हुआ उनका तैलचित्र आज भी जगन्नाथजी के पास है।
वर्तमान में (फिलहाल) लेखक, जिनका परिचय प्रागे दिया जायेगा, सोमपुरा नन्दलाल चुनीलाल, सोमपुरामनसुखलाल लालजीभाई, सोमपुरा अमृतलाल मूलशंकर और सोमपुरा भगवानलाल गिरधरलाल मन्दिरों का निर्माण कार्य कर रहे हैं।
इस समय सोमपुरा मूर्तिकारों में जगन्नाथ देवचंद, बम्बई में हरगोविंददास लल्लुभाई अच्छे कुशल माने जाते हैं। वे स्टेच्यु (प्रतिमूर्ति) भी अपने स्टूडियों में बनाते हैं, मन्दिर-निर्माण के उपरांत दूसरे कलाविषयक विशेष काम भी करते हैं। दुर्गाशंकर, बलदेव लक्ष्मीशंकर, प्रभुदास लक्ष्मीशंकर, विनोदराय अमृतलाल, तलवाड़ा के कस्तूरचंदजी, डुंगरपुर के रघुलालजी, वढ़वाण के नन्दलाल जटाशंकर, नवीनचन्द्र नन्दलाल, पालीताना के परशुराम हिंमतलाल, ध्रांगध्रा के मगनलाल मणिशंकर तथा अहमदाबाद में सोमपुरा अमृतलाल कानजी ये सब प्रख्यात मूर्तिकार हैं वे तादृश्य स्वरूपनिर्माण करने में सिद्धहस्त हैं।
निजी नोंध आम तौर पर प्रात्मश्लाघा के भय से निजी नोंध देते समय संकोच का होनास्वाभाविक है। फिर भी ऐसी नोंध से जिज्ञासु पाठकों को प्रेरणा मिलेगी, मार्गदर्शन मिलेगा ऐसी बुजुर्गों की एवं शुभेच्छकों की भावना और उनके प्राग्रह को आदेश मानकर वह लिखने जा रहा हूँ।
शिल्पस्थापत्य हमारे परिवार का पारंपरिक व्यवसाय है । अंग्रेजी की पढ़ाई करने की महेच्छा थी, लेकिन विधि का विधान कुछ निराला ही था, संयोगवश शिल्प कर्म के व्यवसाय में जुट जाना पड़ा। धीरे धीरे शिल्पकर्म पर हाथ बैठ गया, अधिकार जम गया। घर के पेटीपिटोरे में पड़े हस्तलिखित शिल्पग्रन्थ, पत्रिका,नोंध के कागजात, पूर्वजों के द्वारा तैयार किये गये नकशे और करीबन दोसो वर्ष पहले का पत्रव्यवहार आदि सबकुछ व्यवस्थित कर दिया और उनका अध्ययन शुरू कर दिया। दिन को मैं शिल्पकर्म करता और रात को काफी देर तक अन्थों को पढ़ता। कुछ समझ लेता, कुछ समझ में नहीं भी प्राता, फिर भी नियमित उनका अभ्यास करता। कुछ हस्तलिखित शिल्पसाहित्यका अंश लिखकर उसका अनुवाद करने का प्रयत्न करता। कुछ उलझनें जरूर पातीं, लेकिन पिताजी के द्वारा क्रिया के ज्ञान के साथ साथ उलझनें सुलझाता।
पिताजी शिल्प का प्राथमिक गणितग्रन्थ 'प्रायतत्त्व' कण्ठस्थ कराके गणित का ज्ञान देते थे। उसके बाद केशराजऔर प्रासाद मण्डन के चार अध्याय क्रमशः मुखपाठ करवाया था। यह सब मैं आसानी से बिना रूके, बिनापुस्तक के बोल लेता था। गणित और अन्य विषयों की सक्रिय समझदारी के साथ साथ मैं शिल्प पालेखन (ड्रोइंग) भी करने लगा था।
चार भाइयों में मैं सबसे छोटा था। परिवार के बुजुर्गों को इस बात का सन्तोष था कि यह छोटा लड़का कुलपरंपराकी विद्या सम्हालेगा। मैं रात को बड़ी देर तक बैठकर शिल्पग्रन्थों का अनुवाद करने का प्रयास करता। सं. १९७३ में प्राज से करीब ५७ वर्ष पहले 'प्रासाद
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