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प्रस्तावना
क्षेत्रपालविधानाय दिग्वासा घण्टभूषिताः । क्षेत्रपाल के पैरों में खड़ाऊँ होने चाहिये, वह नंगा होना चाहिये और वह घंटियों से विभूषित होना चाहिये । साँप की जनेऊ भी उसको रहती है।
___ कामशास्त्र के संस्कृत ग्रन्थों में जो निर्दभ उल्लेख है, उसीका अनुसरण मन्दिरों में मिलता है। कलामय देवप्रासादों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का निरूपण मिलता है। वहाँ किस पुरुषार्थ की अवगणना की जा सकती है ? .
कविभूषण कालिदास ने अपने श्रेष्ठ संस्कृत काव्यों में, नाटकों में जो प्रणयवर्णन किया है उनको वाणी द्वारा व्यक्त करने में भले ही संकोच का अनुभव होता हो, लेकिन शिल्पी समाज में उसका बहुत आदर होता है, उन कृतियों को क्या हम अधम कहेंगे?
भारत के प्रत्येक कविवर ने स्त्री के प्राकृतिक स्वरूप के गुणगान किये हैं। उसके सौन्दर्य का अनुपान करानेवाले कालिदास और भवभूति जैसे महान कविवरों ने स्त्री के रूप और गुण की मधुर गाथा गाई है। इससे प्रसन्न हुए शिल्पियों ने स्त्रीसौन्दर्य को मातृत्व भावना से शिल्प में उतारा है, उसी चीज को युरोपीय कुछ शिल्पियों ने वासना का विषय बनाकर शिल्पस्थ किया है। युरोप की निर्वस्त्र नारीस्वरूपों की प्रतिकृतियाँ हमारे शहरों में आम जगहों पर रखी जाती हैं।
स्थपति प्राचीन शिल्पस्थापत्यों की कृतियों पर उनके निर्माताओं के नाम शायद ही कहीं खुदे हुए मिलते हैं। दूसरी शताब्दी में प्रान्ध्र में स्थपति अनामदा, सारनाथ में शिल्पी वामन, धारानगरी में रूपकार सिंहाक और उनके पुत्र रामदेव हुए। विस्ताब्द ७४४ में धातुमूर्तिकार शिवनाग (राजस्थान) और बंगाल में पालवंश के आठवीं सदी के धातुमूर्तिकार धीमन हितभाव हुए हैं।
नवीं शताब्दी में गुजरात में रुद्रमहालय के निर्माता स्थपति गंगाधर और उनके पुत्र प्राणधर हुए। खि.१०२० में आबू के विश्वप्रसिद्ध विमलमंत्री के मन्दिर के निर्माता गणधर हो गये। स्थि. १२१० में हीराधर(डभोई)हुए। धि.१२८५ में आबू के वस्तुपालमन्दिर के निर्माता शोभनदेव स्थपति विश्वकर्मा के अवतार माने जाते थे।
ग्यारहवीं शताब्दी में धारानगरी में प्रमाणमंजरी ग्रन्थ के कर्ता नकुल के पुत्र मल्लदेव हो गये। स्त्रि. १४९५में राजस्थान-राणकपुर के चतुर्मुखनामक भव्य प्रासाद के निर्माता सोमपुरा देपाक थे ऐसी लोकोक्ति है। स्थि. ११७६में कर्नाटक में होयशाल, बेलूर, सोमनाथपुरम, हलेवीड मन्दिरों का निर्माण डंकनाचार्य ने किया था।
पंद्रहवीं शताब्दी में भारद्वाज गोत्र के सोमपुरा खेता और उनके परिवार के मण्डल को मेवाड के महाराणा कुंभा ने आमंत्रण देकर बुलवाया था और उनके द्वारा चित्तोड और उसके आसपास के मन्दिरों का एवं कीर्तिस्तम्भ का निर्माण करवाया था। मण्डन संस्कृत के भी अच्छे विद्वान थे। उस जमाने में शिल्प के ग्रन्थ अस्तव्यस्त एवं अशुद्ध थे, उनका संकलन करके, उनको शुद्ध करके, प्रासादमण्डन, रूपमण्डन, बास्तुमण्डन, राजवल्लभ, वास्तुसार,रूपावतार, देवतामूर्ति प्रकरण आदि ग्रन्थों का उन्होंने नवसंस्करण किया। उनके भाई नाथजी ने वास्तुमंजरी की और उनके परिवार के गोविन्द तथा सुखानन्द ने कलानिधि, वास्तुउद्धारधोरणी और वास्तुकम्बासूत्र की रचना की।
सत्रहवीं शताब्दी में मेवाड़ में कांकशेली के रामनगर के विशाल सरोवर का संगमरमर का किनारा और हजार फीट लम्बी छतरियाँ बनी हैं। वहाँ सोमपुरा के तीनसौ परिवार रहते थे। मेवाड़ के राणा ने उन स्थपतियों को धन, जमीन, गायें और जायदाद देकर अच्छा सम्मान किया था।
पन्द्रहवीं शताब्दी में प्राबू-अचलगढ की धातु की मूर्तियाँ शिल्पी वाच्छापुत्र देवानापुत्र अर्जुन के पुत्र हरदा ने बनाई थीं और दूसरी मूर्तियाँ डुंगरपुर के शिल्पी लुम्बा और लोभा ने बनाई थीं।
सं. १७९० में शिहोर और भावनगर के महाराजा के स्थपति अर्जुनदेव और अम्बाराम ने वहाँ कुछ स्थापत्य का काम किया है, भावनगर शहरकी स्थापना उनके ही समय में हुई थी । सं. १८२५ में पालीताना-शर्बुजय पर्वत पर उन्होंने कुछ मन्दिरों का निर्माण किया, और प्रगलबगल के कुछ मन्दिर मंगलजी और लाधाराम ने बनाये।।
सं. १८८५ में पालीताना-शQजय पहाडी की दो चोटियाँ अलग अलग थीं। सेठ मोतीशाह की टुक के लिये दो चोटियों को मिलाने की योजना रामजी भाने की उन चोटियों को मिला देना चाहते थे; लेकिन बीच में चुनाई की जगह नहीं थी। स्थपति रामजी लाधाराम ने युक्ति से कुछ ऐसी योजना बनाई कि जिसके द्वारा दो चोटियों के बीच की जगह भर दी, परिणामस्वरूप ऊपर विशाल जगह बन गई, उस पर उन्होंने मोतीशाह के नाम की एक टुंक बना दी, तब से पहाड पर के प्रवेशद्वार को 'रामपोल' नाम दिया गया और इस तरह रामजी की स्मृति कायम कर दी गयी। - स्थपति रामजीभा कुशल स्थपति थे। उन्होंने कई स्थानों पर मन्दिरों का निर्माण किया। शQजय पहाडी पर की कई टुक उन्होंने बनाई थी। उस जमाने में उन्होंने शिल्पपद्धति में काफी सुधार किया था। स्थपति रामजीभा के पुत्र रणछोडजी ने वढवाण, जसदण और पालीताना-महाराजाओं के राजमहल बनाये थे। उनके भतीजे भवानभाई और प्रोघड़भाई ने सौराष्ट्र में अनेक मन्दिरों का निर्माण कियाथा। नवमी शताब्दी में त्रिनेत्रेश्वर के कलामय भव्य मन्दिर का सर्जन उन्होंने ही किया था। इसके अलावा वे सरकारी भवनों का निर्माणकार्य भी
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