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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xiv प्रस्तावना कार्य में मुझे सहयोग दिया है। अन्त में हिमालय के बद्रीनारायण मन्दिर का पुनरुद्धार का काम करते समय वहाँ बगल से बहनेवाली पवित्र नदी-अलकनन्दा के जलप्रवाह में वे गिर गये, बह गये और इस तरह उनकी मृत्यु हो गई। इस अवसर पर वे इस दुनिया में नहीं है इसका मुझे पारावार दुःख है, लेकिन इस ग्रन्थप्रकाशन से उनकी आत्मा अवश्य प्रसन्न होगी ऐसा मैं मानता हूँ। चि. भाई बलवन्तराय के पुत्र-मेरे पौत्र चि. चन्दकान्त मेरे साथ शिल्पव्यवसाय में जुड़ गये हैं। मेरे दूसरे पुन चि. विनोदराय सपरिवार अमरीका में हैं, वहाँ वे मिचिगन स्टेट में सरकारी उच्च प्रोहदे पर हैं। तीसरे पुत्र चि. हर्षदराय अहमदाबाद हाईकोर्ट में एडवोकेट वकालत कर रहे हैं। चौथे पुत्र धनवन्तराय बैंक-व्यवसाय में हैं। एक विद्वान कवि ने कहा है कि कवि की जिव्हा में और शिल्पी के हाथों में सरस्वती रहती है। ग्रन्थ में किसी प्रकार की क्षति मालूम हो तो विद्वान लोग उदारता के साथ हंसवृत्ति प्रदर्शित करेंगे ऐसी नम्र बिनति है। शिल्पस्थापत्य के ग्रन्थों का संशोधन और भाषानुवाद होने पर भी जब तक उनके प्रत्येक अंग की टीका के साथ, अन्य ग्रन्थकार के मतमतांतर की नोंध के साथ, प्रत्येक विषय के क्रियात्मक मर्म के साथ उनके आलेखन देने से ग्रन्थ सम्पूर्ण माने जाते हैं। साथ साथ चित्र, कोष्ठक, फोटू आदि भी देना जरूरी है। बिल्कुल इसी प्रकार से घि. १९६० में पहलेपहल मैने 'दीपार्णव'(१) जैसे एक महान ग्रन्थ का प्रकाशन किया था, उसके बाद जिनदर्शन शिल्प (२), और प्रासादमंजरी (गुजराती-३) और हिन्दी (४) का प्रकाशन किया। प्रासादमंजरी (अंग्रेजी-५) प्रेस में है। क्षीरार्णव (६), वेधवास्तुप्रभाकर (७), प्रासादतिलक (८), भारतीय दुर्गविधान (९), प्रकाशित हो गये हैं। शिल्पस्थापत्यलेखन (१०) प्रेस में है। इनके अलावा वास्तुतिलक प्रकाशित हो गया (११), वास्तुविद्या (१२), वृक्षार्णव (१३), वास्तुशास्त्र (१४), इन चार ग्रन्थों का संशोधनकार्य चल रहा है। बुजर्गों के शुभाशीर्वाद की और उनके ऋणस्वीकार की नोंध लेते हुए मुझे हर्ष होता है। जगन्नियन्ता श्रीहरि की सी ही कृपा हमेशा बनी रहे, बस यही एक नम्रतापूर्वक प्रार्थना है। भारतीय शिल्पसंहिता का अंग्रेजी अनुवाद जल्दी प्रकाशित हो ऐसी कामना है, लेकिन यह काम कोई पुरातत्त्वज्ञ विद्वान का साथ मिल जाय तो ही हो सकता है। ऐसे प्रकाशन से दुनिया के प्रत्येक देश के भारतीय शिल्प पर अभिरुचि रखनेवाले विद्वान लाभ ले सकेंगे। श्री और सरस्वती का सुभग समन्वय पानेवाले श्री.श्रीगोपालजी नवेटियाने इस पुस्तक के लिये काफी कष्ट उठाया है उनके अमूल्य सुझाव और मार्गदर्शन के लिये मैं उनका हार्दिक आभारी हूँ। ___ इस पुस्तक का संस्कृत भाग देखकर और उसमें कार्य की शुध्दिया करके मुझे विद्वद आचार्यश्री.भाईशंकर पुरोहित (प्रधानाचार्य, संस्कृत महाविद्यालय, भारतीय विद्याभवन)ने काफी मदद की है। उनके प्रति भी मैं आभारी हूँ। श्री. वीरेन्द्रकुमार जैन और श्रीमति हेमलता त्रिवेदी ने हिन्दी अनुवाद देखकर उसमें कुछ शुद्धियां की थी उसके लिये मैं उनके प्रति आभारी हूँ। इस ग्रन्थ में समयानुसार आवश्यक हेर-फेर करके, व्यवस्थित करने में भाई हरिप्रसाद हरगोविन्द सोमपुरा ने काफी सहायता की है। वे बम्बई युनिवर्सिटी के एम.ए. हैं, उन्होंने कई नाटक, काव्य और कहानियां लिखी हैं। वे बार बार मुझको कहाँ करते हैं कि आपके पास वास्तुशास्त्र का गहरा ज्ञानभण्डार है, तो आपको उस विषय के ग्रन्थों का प्रकाशन करना चाहिये, इतना ही पर्याप्त नहीं है आपको तो शिल्पविद्या की विद्यापीठ शुरू करनी चाहिये। उन्होंने मुझे हिन्दी अनुवाद के काम में बहुत सहयोग दिया है। इस ग्रन्थ में दिये हुए बहुत से पालेखन स्व. चन्दुलाल भगवानजी सोमपुरा (ध्रांगघ्रा) के आलिखित हैं। वे कुशल मूर्तिकार थे। और गुजरात के 'माइकल एन्जेलो' कहे जा सकते हैं। मूर्तिकला की तरह वे प्राचीन शिल्पालेखन में भी प्रवीण थे। उनके साथ मेरे पौत्र चन्द्रकान्त, मेरे भानजे भगवानजी मगनलाल, विनोदराय अमृतलाल और बलदेव लक्ष्मीशंकर ने भी कुछ आलेखनों में मुझे सहायता की है, उन सबका मैं आभारी हूँ। __श्रीमान् सेठ श्री. करमशीभाई सोमैया और सेठ श्री. शान्तिभाई सोमैया ने अपने प्रेस में इस ग्रन्थ को मुद्रित करके प्रकाशित करने की अनुमति देकर मुझे आभारी किया है। 'सोमैया पब्लिकेशन्स' के श्री. गं. श्री. कोशेसाहेब, श्री. पुजार एवं मुरलीभाई ने जो परिश्रम किया है, मुद्रणालय के कर्मचारी उसके लिये आभारी हूँ। मेरे परमप्रिय श्री मधुसुदन ढाकी के लेखों को इस ग्रंथमें आवृत्त किया गया है इस लिये मैं उनका ऋणी हुं। सर्वेऽत्र सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात् ।। इति शुभं भवतु। विनयप्रभा ३१, इलोरा पार्क, अहमदाबाद-१३ स्थपति सं. २०२१, नूतनवर्ष पद्मश्री प्रभाशंकर मोघडभाई सोमपुरा ता. ६ नवम्बर १९७४ शिल्पविशारद For Private And Personal Use Only
SR No.020123
Book TitleBharatiya Shilpsamhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherSomaiya Publications
Publication Year1975
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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