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भारतीय शिल्पसंहिता
शक्ति का उनका प्रायुध है । बुध चन्द्रमा के पुत्र हैं। गुरु, देवताओं और ऋषियोंके गुरु बृहस्पति हैं, वे बुद्धि के स्वामी हैं। शुक्र दैत्यों के गुरुदेव हैं और सर्व शास्त्रों के ज्ञाता एवं प्रवक्ता हैं। शनि, सूर्य के पुत्र हैं, यमराज के बड़े भाई हैं। राहु, सिंहिका के पुत्र हैं, राहु, बिना सिरका शरीर-धड़ मात्र है, चन्द्र-सूर्य का वे ग्रहण करते हैं, बहुत पराक्रमी हैं। केतु-केवल सिर मात्र हैं, बहुत भयंकर हैं।
भोले शिव दानवों के उग्र तपसे प्रसन्न होकर अयोग्य व्यक्तियों को भी वर दे देते थे, फलस्वरूप देवों और दानवों के बीच जब युद्ध छिड़ जाता तो वे देवों को खूब सताते थे, ऐसे अवसर पर अपने शरीर में से परमतेजरूपी शक्ति पैदा करते थे, वह देवी के रूप में प्रकट होकर दानवों के संहार का काम करती थी। कभी कभी तो विष्णु दूसरा स्वरूप लेकर दानवों को मौत के घाट उतार देते थे।
__ जैन तीर्थकर और उनके यक्ष-यक्षिणी प्रादि चौबीस तीर्थंकरों के वर्ण, लांछन, प्रतीक आदि अलग अलग होने के कारण प्रत्येक की अलग प्रतिमा आसानी सेपहचानी जा सकती है। जैन देवों की बैठी और खड़ी कार्योत्सर्ग प्रतिमाएं बनती हैं, उन मूर्तियों के चारों और अलंकृत परिकर होता है। प्रत्येक जैनतीर्थंकर को एक यक्ष और एक यक्षिणी होती है, उनके स्वरूप अलग अलग बताये हैं। वैसे ही षोडश विद्यादेवियों का स्वरूपवर्णन भी मिलता है। तीर्थकर वीतराग बताये गये हैं, वे भक्त को किसी प्रकार का फल नहीं देते, उनकी भक्ति से यक्षयक्षिणी प्रसन्न होते हैं। जैनी माणिभद्रयक्ष और घण्टाकर्ण यक्ष को फलदाता मानकर उनका विशेष आदर करते हैं। वे क्षेत्रपाल और पद्मावती माता को भी मानते हैं।
जैनप्रासाद के चारों ओर पाठ प्रतिहारों के स्वरूप बनाने का विधान है। उसमें अष्ट मंगल और तीर्थंकरों की मातामों को उनके जन्म के पहले जो स्वप्न पाये थे, उनके प्रतीक माने जाते हैं, जैनों के शाश्वत तीर्थ-मेरुगिरि, अष्टापद, नन्दीश्वरद्वीप और समवसरण के स्वरूप बताये हैं, जहाँपर तीर्थकर भगवान बिराजते हैं।
वैदिक सम्प्रदाय में त्रिपुरुष-ब्रह्मा, विष्णु और शिव-में ब्रह्मा की मूर्ति का पूजन शायद ही कहीं होता है। शिव के अव्यक्त स्वरूपलिंग की पूजा, शहरों और देहातों में, जंगलों में भी उनके मन्दिर बनवाकर होती है। उनके व्यक्ताव्यक्त स्वरूप-मुखलिंग का पूजन बहुत कम मात्रा में होता है, अव्यक्त स्वरूप-शिवमूर्तिप्रतिमा का पूजन प्रायः दक्षिण में दिखाई देता है। विष्णु के स्वरूपों का पूजन सभी प्रदेशों में होता है। ____ कुछ देवों के प्रमुक स्वरूपों की प्रधानता अमुक प्रदेशों में पाई जाती है। अलग अलग रूप प्रचलित हो गये हैं और वहां उन्हीं स्वरूपों की पूजा होती है। उदाहरण के रूप में द्रविड़ प्रदेशों में (तिरुपति) व्यंकटेश बालाजी, वरदराज, रंगनाथ प्रादि विष्णु के स्वरूपों की ही पूजा होती है। महाराष्ट्र में विठोबा, त्रिपुरुषमूर्तिदत्तात्रय आदि विष्णुस्वरूप ही पूजे जाते हैं। पूर्व में-उडीसा में श्रीकृष्णस्वरूप की प्रधानता है, श्रीकृष्ण, बलराम (बन्धु युगल) और बहन सुभद्रा की मूर्तियों की स्थापना होती है, उनका एकसाथ पूजन होता है। जगन्नाथजी के मन्दिर में ऐसा ही है।
राधा और कृष्ण की मूर्तियों का पूजन ज्यादातर उत्तर भारत में दिखाई देता है। इस प्रथा का जन्मस्थान मथुरा है। कार्तिकस्वामीस्कन्द षण्मुख की मूर्तियों की स्थापना-पूजा द्रविड़ में होती है, उत्तरभारत में इसका नामोनिशां नहीं है।
बंगाल, आसाम में विशेषरूप से दुर्गा-देवी का अर्चन-पूजन होता है, हिमालय प्रदेश में प्रायः शिवलिंग की पूजा होती है। उपर्युक्त भिन्न भिन्न प्रदेशों में ऊपर बताये हुए देवदेवियों के विशिष्ट स्वरूपों का प्राधान्यतः पूजन होता है, फिर भी वहाँ अन्य देवदेवियों के मन्दिर हैं और उनकी भी पूजा-अर्चा होती है।।
केराला-मलबार में शिवजी के तीसरे पुन 'अय्यप्पा' की मूर्ति की पूजा होती है, वहाँके स्त्रीपुरुष उनके व्रतनियमों का पालन करते हैं। अय्यप्पा की मूर्ति का स्वरूप इस प्रकार है ... खड़े पैरवाली, घुटनों से मुडी हुई बैठी मूर्ति, जिसके घुटने कपड़े से बंधे है, दो हाथ हैं, जिनमें से एक दायें हाथ से अभयमुद्रा की है, दूसरा बायाँ हाथ हाथी की तूंढ की तरह फैला हुआ है। इस अय्यप्पा देव की उत्पत्तिकथा से ही नहीं नाम से भी सारा उत्तरभारत पूरा अपरिचित है। ये शिवजी के तीसरे पुत्र केराला-मलबार में आदर के साथ पूजे जाते हैं। शिवजी और विष्णु के मोहिनीरूप के संयोग से उनका जन्म हुआ है ऐसी कथा वहाँ प्रचलित है।
आजसे करीब ३० वर्ष पहले प्रतिमा-विधान-विषयक भिन्न भिन्न ग्रन्थों में से पाठान्तर और मतमतांतर के ३००० श्लोक इकट्ठा किये थे, इतने श्लोकों का एक बड़ा ग्रन्थ प्रकाशित करने का कार्य बहुत कठिन है, ऐसा समझकर यहाँ केवल उसका आवश्यक हिस्सा कुछ अनिवार्य मूल श्लोकों के साथ दिया गया है ।
सं. २०३० कार्तिक शुद्ध ता. २९-१०-७३
स्थपति पद्मश्री प्रभाशंकर प्रोघड़भाई सोमपुरा
शिल्पविशारद
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