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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतके प्राचीन राजवंश दोनों अपनी अपनी सेना सहित यवन-सेनामें जा मिले । इसके बाद जब हमारने अपने गोले बारूदके गोदामका निरीक्षण किया तब उसे खाली देख सब परसे उसका विश्वास उठ गया । अतः उसने अपनी शरणमें रहनेवाले यवन सेनापति महिमसाहीसे कहा कि क्षत्रियोंका तो युद्ध में प्राण देना ही धर्म है, परन्तु मेरी सम्मतिमें तुम्हारे समान विदेशियोंका नाहक संकटमें पड़ना उचित नहीं । इस लिये तुमको चाहिये कि किसी सुरक्षित स्थानमें चले जाओ। यह सुन महिमसाही अपने घर की तरफ रवाना हुआ और वहाँ पहुँच कर उसने अपने सब कुटुम्बियोंका वध कर डाला । इसके बाद लौटकर उसने हम्मीरसे निवेदन किया कि मेरे सब कुटुम्बी दूसरे स्थानपर चले जानेको तैयार हैं परन्तु यह स्थान छोड़नेके पूर्व वे सब एकबार आपके दर्शनके अभिलाषी हैं । आशा है, आप स्वयं वहाँ चलकर उनकी इच्छा पूर्ण करेंगे। यह सुन हम्मीर अपने भाई वीरम सहित महिमसाहीके घर पर गया। परन्तु ज्यों ही वहाँ पहुँच उसने उक्त यवनसेनापतिके परिवारवालोंकी वह दशा देखी त्यों ही सहसा उसे अपने गलेसे लगा लिया । अन्तमें हम्मीरने भी अन्तिम आक्रमण करनेका निश्चय कर अपनी रंगदेवी आदि रानियों और पुत्री देवलदेवीको आमिदेवके अर्पण कर किलेके द्वार खोल दिये और ससैन्य बाहर निकल शाही फौजपर आक्रमण कर दिया । कुछ समय तक युद्ध होता रहा। परन्तु अन्तमें महिमसाही, परमार क्षेत्रसिंह, वीरम आदि सेनापति मारे गये और हम्मीर भी क्षतविक्षत हो गया । यह दशा देख मुसलमानों द्वारा अपने जीवित पकड़े जानेके भयसे स्वयं ही उसने अपना गला काट परलोकका रास्ता लिया । यह घटना श्रावण शुक्ला ६ को हुई थी।" उपर्युक्त वृत्तान्त फारसी तवारीखोंसे मिलता हुआ होनेसे बहुत कुछ सत्य है । परन्तु इसमें हम्मीरके पिता जैत्रसिंहका अलाउद्दीनको कर देना लिखा है वह ठीक प्रतीत नहीं होता; क्यों कि वि० सं० १३५३ २७२ For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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