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भारतके प्राचीन राजवंश
खोट्टिगदेवके समयका एक शिलालेख शकसं० ८९३ (वि० सं० १०२८ ईसवी सन ९७१ ) आश्विन कृष्णा अमावास्याका मिला है।
और, उसके अनुयायी कर्कराजका एक ताम्रपत्र, शक-संवत् ८९४ (वि० सं० १०२९ ई. सन् ९७२) आश्विन शुक्ल पूर्णिमाका मिला है। इससे खोट्टिगका देहान्त वि० सं० १०२९ के आश्विन शुक्ल १५ के पहले होना निश्चित है।
७-वाक्पति, दूसरा (मुञ्ज)। यह सीयक, दूसरे (हर्ष) का ज्येष्ठ पुत्र था। विद्वान होनेके कारण पण्डितोंमें यह वाक्पतिराजके नामसे प्रसिद्ध था । पुस्तकोंमें इसके वाक्पतिराज और मुझे दोनों नाम मिलते हैं। इसीके वंशज अर्जुनवर्माने अमरुशतक पर रसिकसजीवनी नामकी टीका लिखी है। इस शतकके बाईसवें श्लोककी टीका करते समय अर्जुनवाने मुञ्जका एक श्लोक उद्धृत किया है । वहाँपर उसने लिखा है:-" यथा अस्मत्पूर्वजस्य वाक्पतिराजापरनाम्नो मुञ्जदेवस्य । दास कृतागसि इत्यादि।" अर्थात्जैसे हमारे पूर्वज वाक्पतिराज उपनामवाले मुञ्जदेवका कहा श्लोक, 'दासे कृतागसि' इत्यादि है। इसी तरह तिलक-मजरीमें भी उसके मुन और वाक्पतिराज दोनों नाम मिलते हैं । दशरूपावलोकके कर्ता धनिकने “ प्रणयकुपितां दृष्ट्वा देवीं" इस श्लोकको एक स्थलपर तो मुञ्जका बनाया हुआ लिखा है और दूसरे स्थलपर वाक्पतिराजका । पिङ्गल-सूत्रवृत्तिके कर्त्ता हलायुधने मुञ्जकी प्रशंसाके तीन श्लोकोंमेंसे दोमें मुन्न और तीसरेमें वाक्पतिराज नाम लिखा है । इससे स्पष्ट है कि ये दोनों नाम • एक ही पुरुष के थे। __ उदयपुर ( गवालियर ) के लेखमें इस राजाका नाम केवल वाक्पतिराज ही मिलता है, जैसा कि उक्त लेखके तेरहवें श्लोकमें लिखा है:(१) Ep. Ind, Vol I, P. 235.
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