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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ भामिनी-विलासे दैवात् = भागधेयात् ( देवं दिष्टं भागधेयं भाग्यं स्त्री नियतिविधिः-अमरः ) लोचनयोः गोचरः, तेन = नेत्रविषयीभूतेन । भवता = घनेन । यदि । तस्मिन् = चातके । करकानां = उपलानां (कृणोति, कृ हिंसायां + वुन्, वर्षोपलस्तु करकाः-अमरः ) यन्निपातनं तद्रूपा एव या कृपा = अनुकम्पा सा। स्वीचक्र = कृता चेत् । ततः = तर्हि । के प्रति ब्रमहे = कस्मै किं कथयामः । शब्दार्थ हे घन ! प्रीष्ममें; सूर्यकी भयङ्कर किरणोंसे संतप्त हुए जिस चातकने तुम्हारा ध्यान करके वे लम्बे दिन काटे । भाग्यसे आँखोंके सामने आते ही आज तुम्हीं यदि उसपर ओले बरसाने लगे, तो फिर किससे क्या कहैं। टिप्पणी-जब रक्षक ही भक्षक हो जाय अर्थात् जीवनमें जिससे बड़ी बड़ी आशाएँ की वही नष्ट करनेपर तुल जाय, तो इसे सिवा अपना दुर्भाग्य समझनेके और किससे क्या कहा जाय, इसी भावको इस मेघान्योक्ति हारा व्यक्त किया है। __ चातक एक ऐसा पक्षी है जो केवल स्वाति नक्षत्रमें बरसे हुए मेघजलको ही पीता है। वेचारेने “अब स्वाति नक्षत्र आयेगा, मेघसे पानी बरसेगा और मेरी प्यास बुझेगी'' इसी आशामें बड़ी कठिनतासे किसी प्रकार प्रचण्ड आतपको सहते हुए गर्मियोंके लम्बे-लम्बे दिन बिताये। किन्तु ज्योंही स्वातिका मेघ आकाशमें दीखा, उससे जलके स्थान पर लगे ओले बरसने । अब बेचारा वह चातक सिवा अपने भाग्यको रोनेके किससे क्या कहे। इससे यह भी ध्वनित होता है कि किसीकी आशा पर इस प्रकार तुषारपात करनेवाला अत्यन्त ही निन्दनीय है। स्वातिके जलरूप इस अर्थके समुद्यममें करकापातरूप अनिष्ट अर्थकी प्राप्ति होने से यहाँ विषम अलंकार है “अनिष्टस्याप्यवाप्तिश्च तदिष्टार्थसमुद्यमात्” ( कुवलया० )। शार्दूलविक्रीडित छन्द है। ( लक्षण देखिये श्लोक ३ ) ॥३३॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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