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अन्योक्तिविलासः लघुबकुलक्षुपे । विपुलाम् = अतीव । करुणां = दयां, न अकृत = नाकरोत् । यथान्यान् वृक्षानासिषेच तथैवैनमपि, न तु विशेषेणेतिभावः । द्राक् =शीघ्रमेव ( दाङ् मंक्षु सपदि द्रुतम्-अमरः ) उद्यन्तः = आविभवन्तो ये कुसुमनिकराः = पुष्पगुच्छाः तेषां। परिमलैः = आमोदैः । दिशामन्ताः दिगन्ताः तान् दिगन्तान् = दिग्विभागान् । मधुपानां = भ्रमराणां यत् कुलं-समूहः तस्य झङ्कारेण = गुञ्जनेन भरिताःआपूरिताः तान्, एवंविधान् । आतेने = विस्तारयामास ।
भावार्थ-उद्यानके सभी वृक्षों पर समान स्नेह करनेवाले मालीने इस बकुल वृक्षपर कोई विशेष दया नहीं की, अर्थात् अन्य वृक्षोंकी अपेक्षा इसे अधिक नहीं सींचा। तो भी इस बकुलने तो शीघ्रही बढ़कर अपने पुष्पस्तबकोंकी असीम सुगन्धसे आकृष्ट भ्रमरोंके कलरवसे, दसों दिशाओंको गुंजायमान कर दिया।
टिप्पणी-अपने गुण, विद्वत्ता और बुद्धिबल ही मनुष्यकी कोतिको दिगन्तव्यापी बना सकते हैं, दूसरोंकी सहायता तो निमित्तमात्र ही होती है। इसी भावको कविने इस बकुलान्योक्ति द्वारा व्यक्त किया है। मालीने तो सब वृक्षोंका समानभावसे ही पोषण किया था। इस छोटेसे बकुलको तो अधिक सींचा नहीं, किन्तु इसने शीघ्र ही बढ़कर अपनी सुगन्ध द्वारा समस्त भौंरोंको अपनी ओर आकृष्ट कर लिया और वे इस प्रकार गूंजने लगे कि उनके कलरवसे दिशाएं भर गयीं। बकुलके साथ 'बाल' यह विशेषण देनेसे यह ध्वनि भी व्यक्त होती है कि मालीने तो अन्य वृक्षोंकी अपेक्षा इसे छोटा समझकर इस पर कम ही दया दिखायी, बड़े वृक्षोंसे इसमें कम ही जल डाला, फिर भी वे पिछड़ गये
और यह शीघ्र ही बढ़ गया। इसने अपनी गन्धको दशों दिगन्तों में फैला दिया। इससे कविकी यह भावना भी व्यक्त होती है कि चारों भोरसे तिरस्कृत होनेपर भी मेरे अद्वितीय पाण्डित्यने उन अहम्मन्य पण्डितोंको पछाड़ ही डाला।
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