SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भामिनी-विलासे ____टीका-हे बर्बुर ! (बई -- उरच्) पत्राणि च पुष्पाणि च फलानि च तेषां लक्ष्मीः = शोभा तया। वृतं = युक्तं, पत्रपुष्पफलपूर्णमित्यर्थः । कदापि = कस्मिन्नपि काले। अदृष्टं = अनवलोकितं । प्रत्युत शूकैः = कण्टकैः ( श्यति, शो तनूकरणे 'उलू कादयश्च' इति निपातनात् । शूकोऽस्त्री श्लक्ष्णतीक्ष्णान:-अमरः ) वृतम् = व्याप्तं । भवन्तं कस्य = वस्तुनः इति शेषः । लोभेन = प्राप्तीच्छया । वयम् । उपसम = आगच्छेम । इति त्वमेव वद = कथय । ___ भावार्थ हे वबूल ! पत्र, पुष्प या फलोंसे पूर्ण तो तुम्हें हमने कभी देखा नहीं, काँटोंसे तुम्हारी शाखाएँ भरी रहती हैं। भला, तुम्ही बताओ किस लोभसे हम तुम्हारे पास आवे ? टिप्पणी-दुष्टोंके पास सज्जन लोग क्यों जायँ ! गुण तो उनमें होते नहीं, दोषोंसे वे घिरे रहते हैं । इसलिये उनसे कोई उपकार की संभावना नहीं, उलटे अपकारकी प्रतिक्षण आशंका रहती है। इसी भावको लेकर इस अन्योक्तिकी रचना हुई है कि ऐ बबूल ! पत्ते, फूल या फल' कुछ भी तुममें होता तो लोग तुम्हारे समीप आते। यह सब तो अलग रहा, तुम तो सदा काँटोंसे घिरे रहते हो जिनमें उलझनेका डर लगा रहता है। ___ इसमें भी अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार है । आर्या छन्द है ॥२२॥ समुदायमें ही शक्ति होती है, अकेले व्यक्ति में नहींएकस्त्वं गहनेऽस्मिन् कोकिल न कलं कदाचिदपि कुर्याः । साजात्यशङ्कयामी न त्वां निघ्नन्ति निर्दयाः काकाः ॥२३॥ अन्वय-कोकिल ! एकः, त्वम् , अस्मिन् , गहने, कदाचिद्, अपि, कलं, न, कुर्याः, अमी, निर्दयाः, काकाः, साजात्यशङ्कया, स्वां, न, निघ्नन्ति । For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy