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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अन्योक्तिविलासः www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७ एक: = अकेले | शब्दार्थ — कोकिल = हे कोयल ! त्वम् = तुम | कदाचिद् अपि = कभी भी । कलं = मधुर = अस्मिन् गहने – इस वनमें। कूजन । न कुर्या: = मत करना । अमी = ये | निर्दया: काका: = = निठुर कौवे । साजात्यशङ्कया = अपना सजातीय ( अर्थात् कौवा ) समझकर । त्वां = तुमको | न निघ्नन्ति ( अभीतक ) मार नहीं रहे हैं । टीका - हे कोकिल = पिक ! ( कोकते इति, कुक आदाने + लच् ) । एकः = एकाकी, असहाय इत्यर्थः, त्वम् । अस्मिन् गहने कानने ( गाह्यते इति गाहू विलोडने + युच्, ह्रस्वः । गहनं काननं वनम् — अमर: ) कदाचिदपि = कस्मिन्नपि काले । कलम् = अव्यक्तमधुरध्वनिं । न कुर्या: = मा कुरु । यतः । अमी = एते । निर्दया: निष्ठुराः । काका: = वायसाः ( कार्यात इति कै शब्दे + कन् ) । समानायाः जातेर्भावः साजात्यं समानजातित्वं, तस्य शङ्कया = स्वकुलोद्भवभ्रान्त्या इत्यर्थः । एतावत्कालपर्यन्तं त्वां न निघ्नन्ति =न नाशयन्ति । 2 = = For Private and Personal Use Only ** भावार्थ- हे कोकिल ! तुम अकेले ही इस वनमें कभी भी 'कुहू' शब्द मत करना; क्योंकि अपनी ही जातिका समझकर अभी तक इन निर्दयी कौंवोंने तुम्हें मार नहीं डाला । टिप्पणी- जब दुर्जनोंसे पाला पड़ जाता है तो सज्जनको भी अपनी सज्जनताका प्रर्दशन न करके उन्होंमें मिले रहना चाहिये । अन्यथा वे तो दुष्ट हैं ही, उसे नष्ट ही कर डालेंगे । इसी भावको लेकर यह अन्योक्ति है । कल ! अभी तक तुम्हारे काले स्वरूपको देखकर ये तुम्हें भी कौवा ही समझे हैं, किन्तु जहाँ तुम्हारे जगदाह्लादक 'कुहू' शब्दको ये दुष्ट सुनेंगे तो निश्चय ही तुम्हें मार डालेंगे । इसलिये जबतक कोई सहयोगी न मिले, तुम अकेले अपनी कला का प्रदर्शन मत करो । भले ही इन मूर्खोके बीच तुम्हें मूर्ख ही बनकर रहना पड़े । तुलना० - महाकवि गुमानीजीकी समस्या-पूर्ति —
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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