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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्योक्तिविलासः जलाभावमाप्नुवत्या इत्यर्थः । अपि । रथ्यानां = प्रतोलीनां ( रथं वहति, रथ + यत् + टाप् ) यत् उदकं = जलं, तस्य आदानं = ग्रहणं । किं युक्तं खलु = नैवोचितमितिभावः । भावार्थ-हे नदी ! देर तक सोचो कि विन्ध्यगिरिसे निकलती हुई तुम अतीव पवित्र हो तो भी सूखनेके डरसे, बहते हुए गन्दे पनालोंका जल लेकर अपने स्वरूपको बनाये रखना, क्या तुम्हें उचित है ? टिप्पणी-अपने स्वरूपको बनाये रखनेके लिये अनुचित साधनोंका उपयोग करना सज्जनोंके लिये उचित नहीं है, इसी भावको लेकर यह अन्योक्ति कही गयी है। नदी दूसरोंको स्वच्छ करती है। विन्ध्याचलसे निकलनेके कारण उसकी पवित्रता और भी महत्त्व रखती है। यदि वही नदी सूखने या जल कम हो जानेके भयसे, सड़कोंके गन्दे पनालोंका पानी लेकर बहने लगे तो उसका स्वरूप भलेही बना रहे; किन्तु मलिनता हो जानेसे लोगोंकी दृष्टिमें उसका वह सम्मान न रह जायगा। ____ इस पद्यमें अप्रस्तुत नदीके द्वारा प्रस्तुत किसी कुलीन व्यक्तिको निर्देश किया गया है, अतः अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार है । आर्या छन्द है ॥२१॥ व्यक्ति में एक न एक गुण अवश्य होना चाहिये-- पत्रफलपुष्पलक्षम्या कदाप्यदृष्टं वृतं च खल शूकैः। उपसम भवन्तं बबुर वद कस्य लोभेन ॥२२॥ अन्वय-वर्बुर ! पत्रफलपुष्पलक्ष्म्या , वृतं, कदापि, अदृष्टं, खलु, शूकैः, च, (वृतं ) भवन्तं, कस्य, लोभेन, उपसर्पम, वद । शब्दार्थ-बधूर = हे बबूल वृक्ष ! पत्रफलपुष्पलक्ष्म्या = पत्तों, फलों एवं फूलोंकी शोभासे । वृतं = युक्त । कदापि = कभी भी। अदृष्टं = न देखे गये । च = और। खलु = निश्चय ही। शूकैः = काँटोंसे ( वृतं = व्याप्त)। भवन्तं = आपको। कस्य लोभेन = क्या पानेके लोभसे । उपसर्गम = पास आवें। For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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