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भामिनी-विलासे
व्यक्तियोंका साथ ग्रहण करते हैं या लोभके वश होकर अपने पदकी प्रतिष्ठाका ध्यान नहीं रखते। ‘पदं न्यस्य' यह वाक्यांश महत्त्वपूर्ण है । सर्वातिशय सुगन्धिशाली कल्पतरु कुसुमको लात मारकर या उसपर अपना सिक्का जमाकर तुम दूसरे साधारण पुष्पसे इसकी आकांक्षा करते हो।
इसमें भी व्याजस्तुति ही अलंकार है। इतने प्रचुरसुगन्धमय पदार्थ का उपभोग करनेपर भी साधारण पुष्पसे भी पराग ले लेते हो, तुम्हारे अन्दर अभिमानका लेश भी नहीं है, अतः महान् हो। इस स्तुतिके बहाने यह निन्दा व्यक्त होती है कि तुम्हारे लोभ या अविवेककी सीमा नहीं जो कि ऐसे उन्नत पदको छोड़कर साधारण पुष्पसे पराग लेने चले हो । यह भी आर्याछन्द है ॥२०॥
तटिनि चिराय विचारय विन्ध्यभुवस्तव पवित्रायाः। शुष्यन्त्या अपि युक्तं किं खलु रथ्योदकादानम् ॥२१॥
अन्वय-तटिनि ! चिराय, विचारय, विन्ध्यभुवः, पवित्रायाः, तव, शुष्यन्त्या, अपि, रथ्थोदकादानम् , किं, युक्तम् , खलु ।
शब्दार्थ-तटिनि = हे नदी ! चिराय = दीर्घ काल तक । विचारय= सोचो । विन्ध्यभुवः = विन्ध्याचलसे उत्पन्न हुई। ( अतः ) पवित्रायाः = पवित्र । तव = तुम्हारा । शुष्यन्त्याः अपि = सूखती हुई का भी । रथ्योदकादानम् = रथ्याओं = सड़कों (पर बने पनालों) के जलको लेना। किं युक्तं खलु = क्या उचित है ? ___टीका-हे तटिनि = सरिते ! ( तरङ्गिणी शैवलिनी तटिनी ह्रादिनी धुनी-अमरः ) चिराय = बहुकालं यावत् । विचारय = विचारं कुरु । विन्ध्याद्भवतीति, तस्याः विन्ध्यभुवः = विन्ध्यारेनिःसृतायाः । अतएव । पवित्रायाः = पूतायाः। तव = नद्याः। शुष्यन्त्याः = शोषं गच्छन्त्याः
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