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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ भामिनी-विलासे दीनेभ्योऽपि दीनः, अतीव दीन इतिभावः । मीनः = मत्स्यः कतमां = कां वा गतिं = दशाम् अभ्युपैतु = गच्छतु । त्वदुदकप्राचुर्य हित्वा गत्यन्तराभावात् नाशमेष्यतीति भावः ।। भावार्थ-हे सरोवर ! ग्रीष्मके संतापसे तुम्हारे जलका ह्रास हो जानेपर हंसादिपक्षी तो आकाशमें उड़ जायेंगे। रसलुब्ध भ्रमर आमके बोरों में जा लिपटेंगे । किन्तु अनन्यगतिक बेचारा मीन कहाँ जाय ? टिप्पणी-सरोवरको सम्बोधित करके कथित इस अन्योक्तिद्वारा कविने आश्रयदाताके प्रति अपनी अनन्यगतिकता दर्शाई है। अर्थात् विपत्कालमें तुम्हारे क्षीण हो जानेपर अन्य स्वार्थी और अवसरवादी लोग तो दूसरा आश्रय ढूंढ लेंगे, किन्तु जो तुम्हारे बिना जी नहीं सकता उस बेचारेको क्या दशा होगी ? उसके लिये मृत्युके सिवा दूसरा चारा नहीं। अतः तुम्हें अपने इस अनन्यगतिक शरणागतकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। इससे यह भी ध्वनि निकलती है कि ये पक्षी और भौंरे, जिन्हें तुम अपना मित्र समझे बैठे हो, केवल सम्पत्कालके साथी हैं । विपत्तिके समय तम्हारा साथ देनेवाले नहीं हैं। तुम्हारे क्षीण होनेपर तुम्हारे ही पङ्कमें अपना जीवन दे देनेवाला मीन ही तुम्हारा वास्तविक मित्र है। इस अन्तरको समझो। इस पद्यमें प्रत्येक विशेषण साभिप्राय है अतः परिकर अलंकार है। वसन्ततिलका छन्द है। लक्षण-उक्ता वसन्ततिलका त भ जा ज गौ गः ( वृत्त० ) । इसमें ८१६ पर विराम होता है ॥१६॥ स्वार्थी-परमार्थीके अन्तरको समझेंमधुप इव मारुतेऽस्मिन् मा सौरभलोभमम्बुजिनि मंस्थाः। लोकानामेव मुदे महितोऽप्यात्माऽमुनार्थितां नीतः ॥ १७ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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