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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ भामिनी-विलासे प्राप्ते, सति । असौ = दूरस्था । संतापमालाकुला ( संतापमालया आकुला ) आतपावलि तरलिता पथि गच्छन्तीति पान्थाः = पथिकाः तेषां सन्ततिः परम्परेत्यर्थः । जीवनयाचनार्थ के प्रति = कस्य वदान्यस्य समीपे, गन्ता = यास्यति । एवं निरन्तरं = निर्बाधम् आधीनां = मनोव्यथानां पटलानि = समूहाः तैः (पुंस्याधिर्मानसीव्यथा इति, क्लीबं समूहे पटलम्, इति च-अमरः ) यस्य वपुः = शरीरं क्षीयते = दुर्बलं भवति, अस्य = एवं भूतस्य । मार्गे यः सरः तस्य मार्गसरसः = पथस्थतडागस्य, जीवनं = जनिः धन्यं :- प्रशस्यतरं । वारिधीनां = सागराणां जनुः = जन्म तु धिक = अप्रशस्यमेवेतिभावः । भावार्थ-ग्रीष्मकालीन सूर्यकी प्रचण्डकिरणोंसे शीघ्र ही मेरे सूख जानेपर इन बेचारे पथिकोंका समूह जलकी याचना करने किसके पास जायगा ? इस मनोव्यथासे जिसका शरीर क्षीण होता जा रहा है, ऐसे मार्गके समीपस्थ तालाबका ही जीवन धन्य है। अपार जलराशि होनेपर भी किसीके उपयोगमें न आनेवाले समुद्रोंका जन्म तो धिक्कार ही है। टिप्पणी-अल्प सामर्थ्य होनेपर भी परोपकारकी भावना रखनेवाले व्यक्तिका जीवन प्रशंसनीय है और प्रचुर ऐश्वर्यशाली होनेपर भी जो दूसरोंके काम नहीं आता वह निन्दनीय ही है, इसी भावको इस अन्योक्ति द्वारा व्यक्त किया है। समुद्रकी अपेक्षा मार्गस्थ तालाबकी सामर्थ्य बहुत ही अल्प है, फिर भी उसे निरन्तर यह चिन्ता रहती है कि बेचारे पथिक उस समय कहाँ जायेंगे, जबकि ग्रीष्मके प्रचण्ड आतपसे मैं सूख जाऊँगा। क्योंकि संतप्त होनेपर ये मेरा जल पीकर ही अपना संताप मिटाते हैं। इस चिन्तासे मानों वह ग्रीष्मके आनेसे पूर्व ही क्षीण होने लगा है । ऐसा परोपकारी यह धन्य है। किन्तु सारे विश्वकी अपार जलराशिको अपनेमें समेटे रहनेपर भी जो क्षार होनेसे अपेय है और किसी के काम नहीं आ सकता, उस समुद्रसे क्या लाभ ? यहाँ भी काव्यलिंग अलंकार ही प्रधान है। क्योंकि सरोवरके क्षीण For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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