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अन्योक्तिविलासः
२३ __ भावार्थ-बाहरसे देखनेमें खङ्गकी धारके समान तीक्ष्ण और सर्पराजकी भॉति भयंकर होनेपर भी जिनका अन्तःकरण कोमल होता है ऐसे सज्जनों की जय हो।
टिप्पणी-यह कोई आवश्यक नहीं कि कोई व्यक्ति बाहरी व्यवहारमें रूखा है तो वह अन्तःकरणसे भी कठोर ही होगा। ऊपरसे देखने में रूक्ष होते हुए भी जो हृदयसे किसीका बुरा नहीं चाहता, ऐसा व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ है। तुलना-बचादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि ।
लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमर्हति ॥ साक्षाद्राक्षादीक्षागुरवः-का अर्थ है कि द्राक्षाने भी मधुरता और कोमलता जिनके अन्तःकरणसे सीखी है । अर्थात् यह अत्यन्त ही कोमल और मधुर है।
यह अन्योक्ति नहीं, प्रत्युत सामान्यतः सज्जन व्यक्तिकी प्रशंसामात्र है। इसमें प्रतीप अलंकार है । लक्षण-"प्रतीपमुपमानस्योपमेयत्वप्रकल्पनम्" ( चन्द्रा० )। यह गीतिछन्द है, लक्षण-"आर्या प्रथमाधसमं यस्या अपरार्धमाह तां गीतिम्" (छन्दोमंजरी) ॥१६॥ स्वेच्छया गुणोंका प्रसारक ही सच्चा मित्र है-- स्वच्छन्दं दलदरविन्द ते मरन्दं
विन्दन्तो विदधतु गुञ्जितं मिलिन्दः । आमोदानथ हरिदन्तराणि नेतुं
नैवान्यो जगति समीरणात्प्रवीणः ॥१५॥ अन्वय-दलदरविन्द, ते, मरन्दं, स्वच्छन्द, विन्दन्तः, मिलिन्दाः, गुञ्जितं, विदधतु, अथ, आमोदान् , हरिदन्तराणि, नेतु, जगति, समीरणात् , प्रवीणः, अन्यः, न एव ।
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