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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भामिनी-विलासे तो इससे तुम अपने मनको खिन्न क्यों करती हो, तुम्हारे परिपक्व परागके मर्मको जाननेवाले भौंरे संसार में दीर्घायु रहने चाहिये। टिप्पणी-कोई कितना ही गुणवान् या विद्वान् हो, धूर्तलोग तो उसका तिरस्कार ही करते हैं । परन्तु उन धूर्तोंकी उस अवहेलनासे उसे दुःखी नहीं होना चाहिये; क्योंकि संसार में उसके गुणों या महत्ताको समझनेवाले भी लोग हैं। कमलिनीको सम्बोधितकर कही गयी यह अन्योक्ति इसी भावको व्यक्त करती हैं। अर्थात् हे कमलिनि ! ये बगले तुम्हारी वास्तविकताको नहीं जानते, इसीसे तुम्हारी अवहेलना करते हैं । बगला अपनी धूर्तता और दम्भके लिये प्रसिद्ध है किसी भी दम्भी को देखकर लोग "बगलाभगत" की संज्ञा देते हैं। बगलेकी उपमासे व्यक्त होता है कि ये अवहेलना करनेवाले मुर्ख तो है ही साथ ही धर्त और पाखण्डी भी हैं। अतः इससे तुम्हें खेद करने की आवश्यकता नहीं, यह तो उनका स्वभाव ही है। तुम्हारे परिपक्व परागका स्वाद जिन्हें ज्ञात है अर्थात् जो तुम्हारी महत्ता-गुणवत्ताको जानते हैं वे भ्रमर तो चिरकाल तक तुम्हारे यशका वर्णन करते ही रहेंगे। “जगति जयन्तु चिरा०” यह भी पाठ है। भवन्तुकी अपेक्षा जयन्तु पाठ अच्छा है । इस पद्यमें भी खेद न करनेरूप अर्थका समर्थन भ्रमरोंकी दीर्घायुरूप अर्थसे किया गया है, अतः काव्यलिंग अलंकार है। यह पुष्पिताग्रा छन्द है । लक्षण-"अयुजि नयुग रेफतो यकारो युजि च न जौ ज र गाश्च पुष्पिताना" ( वृत्त० ) अर्थात् इसके विषम पादोंमें ( १॥३) न न र य और सम पादोंमें ( २।४ ) न ज ज र ग मात्रा होती हैं, १२।१३ पर विराम होता है ॥८॥ परिस्थिति क्या नहीं कराती येनामन्दमरन्दे दलदरविन्दे दिनान्यनायिषत । कुटजे खलु तेने हा तेनेहा मधुकरेण कथम् ॥३॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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