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भामिनी-विलासे
टीका-हे कूप = उदपान ( कुत्सिता ईषद्वा आपो यन, कृ शब्दे +प, दीर्घः ) ! अहम्, नितराम् = अत्यन्तम् । नीचः = निम्नः, हीन इतियावत् । अस्मि इति, खेदं = दुःखं । कदापि कदाचिदपि । मा कृथाः= नैव कुरु । यतः । त्वम् । अत्यन्तम् = अतीव सरसं= रसपूर्ण (जलपूर्ण शृङ्गारादियुतं वा) हृदयम् = अन्तस्तलं यस्य स एवंभूतः । परेषाम = अन्येषां । गुणानां = नीत्युपदेशादीनां रज्जूणां वा । गृहीता = ग्राहकः । असि।
भावार्थ हे कूप ! "मैं अत्यन्त नीचा हूँ" ऐसी दुःखमय भावना तुम कभी न करना, तुम अतीव सरस हृदयवाले हो; क्योंकि दूसरोंके गुण ग्रहण करते हो।
टिप्पणी-गुणवान् व्यक्तिको भी जब चारों ओरसे ईर्ष्यालु जनोंकी अवहेलना सहनी पड़ती है तो वह खिन्न होकर अपनेमें हीनता अनुभव करने लगता है, ऐसे ही व्यक्तिको लक्ष्यकरके कूपको सम्बोधित कर यह अन्योक्ति कही गयी है । हे कूप ! तुम नीचे अवश्य हो, इससे भौतिक सम्पदाओंके मदसे चूर व्यक्ति तुम्हें अपनेसे हीन भले ही समझें, किन्तु तुम स्वयं अपनेको हीन न समझो। क्योंकि तुम अत्यन्त सरसहृदय हो ( सरस-कूपपक्षमें जलपूर्ण, व्यक्तिपक्षमें शृङ्गारादिसे पूर्ण ) और दूसरों के गुणोंको (कूपपक्षमें रस्सियोंकों, व्यक्तिपक्षमें दयादानादिको ) सादर ग्रहण करते हो।
इस पद्यमें नीचा होनेसे खेद न करने रूप अर्थका समर्थन अत्यन्त सरस-हृदय होने और परगुणग्राहक होनेरूप अर्थसे किया गया है, अतः काव्यलिंग अलंकार भी है। नीच, सरस और गुण शब्दों में श्लेष है। रसगंगाधरमें यह पद्य श्लिष्टविशेषणा अप्रस्तुतप्रशंसाके उदाहरणमें पढ़ा गया है। कुछ प्रतियों में इसे ८ वें श्लोकके बाद पढ़ा गया है। आर्या छन्द है ( लक्षण दे० श्लो० ५) ॥ ७ ॥
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