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अन्योक्तिविलासः
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टिप्पणी- कोकिलको सम्बोधित करके कही गयी यह अन्योक्ति उस विद्वान्को लक्ष्य करती है जो गुणग्राहीके अभाव में दैन्यमय जीवन बिता रहा है । कवि उसे विश्वास दिलाता है कि तुम धैर्य रक्खो, समयः आयेगा जबकि रसाल खिलेगा और तुम तृप्त हो जाओगे । तुलना०
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा
सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः । यशसि चाभिरुचिव्यसनं श्रुतौ
प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ॥
इस पद्य में अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है । अप्रस्तुत कोकिलसे प्रस्तुत किसी विद्वान् की और रसालसे प्रस्तुत किसी गुणग्राहीकी प्रतीति होती है; यह पद्य भी रसगङ्गाधर में अप्रस्तुतप्रशंसा प्रकरण में पढ़ा गया है ।
यह भी आर्या छन्द है ( लक्षण देखिये श्लोक ५ ) ॥ ६॥
आत्महीनताका अनुभव न करेंनितरां नीचोऽस्मीति त्वं खेदं कूप मा कदापि कृथाः । अत्यन्तसर सहृदयो यतः परेषां गुणगृहीतासि ॥७॥ अन्वय-- हे कूप ! नितरां, नीचः अस्मि इति, त्वम् खेदं, कदापि, मा कृथाः, अत्यन्तसर सहृदयः, यतः, परेषां गुणग्रहीता, असि ।
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शब्दार्थ --- कूप = हे कूवे ! नितरां = अत्यन्त | नीचः = नीचा ( गहरा ) । अस्मि = हूँ । इति = ऐसा । खेदं = दुःख । त्वं = तुम | कदापि कभी भी । मा कृथाः = मत करना । अत्यन्तसरसहृदयः असि = तुम अत्यन्त सरस ( जलसे पूर्ण या सौजन्यसे युक्त ) हृदय ( अन्तस्तल ) वाले हो । यतः = क्योंकि । परेषां=दूसरोंके । गुण- गृहीता = गुणों ( रस्सियों या दादाक्षिण्यादि ) को ग्रहण करनेवाले । असि = हो ।
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