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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्योक्तिविलासः शब्दार्थ-अयि दलदरविन्द = हे खिलते हुए कमल ! तब = तुम्हारे । किमपि = थोड़ेसे । स्यन्दमानं = चूते हुए। मरन्दं = मधुको । लिहन्तः = चाटते हुए । भृङ्गाः =भौंरे । मञ्जु गुञ्जन्तु-मीठी गुंजार भले ही करें। निरपेक्षः = निर्लोभ होकर । दिशि दिशि = प्रत्येक दिशा में । तावकीनं = तुम्हारे । परिमलं = सुगन्धको । विवृण्वन् = फैलाता हुआ। अयं = यह । गन्धवाहः = वायु । अन्य एव = विलक्षण ही । बान्धवः= मित्र है ॥४॥ ___टीका-अयि, दलंश्चासौ अरविन्दश्च तत्सम्बुद्धौ दलदरविन्द - हे विकसितकमल ! भृङ्गाः द्विरेफाः । तव किमपि-कथंचिदपि । स्यन्दमानं किंचित्स्रवत्, मरन्दं = परागं, लिहन्तः = आस्वादयन्तः । मञ्ज = मनोज्ञं यथास्यात्तथा, गुञ्जन्तु = शब्दयन्तु नाम । किन्तु निरपेक्षः अपेक्षारहितः निर्लोभ इतियावत् । सन् । दिशि दिशि = दशस्वपि दिक्षु । तावकीनं = त्वत्सम्बन्धि । परिमलं = सुगन्धं । विवृण्वन् विशदयन् । अयं । गन्धं वहतीति गन्धवाहः = पवनः । तु बान्धवः = सखा ( वध्नाति, बन्ध बन्धने + उ + ( प्रज्ञादि०), बान्धवो बन्धुमित्रयोःहेमः ) कश्चिदन्य एव = अलौकिक एवेत्यर्थः । भावार्थ-हे विकसित कमल ! तुम्हारे गिरते हुए परागको चाटनेवाले ये भौंरे भलेही गुनगुनाया करें; किन्तु बिना किसी लोभके दशों 'दिशाओंमें तुम्हारी सुगन्धको फैलानेवाला अनुपम मित्र तो यह पवन है । टिप्पणी-कमलको लक्ष्य करके कही गयी इस अन्योक्ति द्वारा कविने चाटुकारोंके प्रभावमें आकर वास्तविकताकी उपेक्षा करनेवाले सम्पन्न व्यक्तियोंको फटकारा है। टुकड़ेके लोभी ये भौंरे ( चाटुकार) तभी तक तुम्हारी चाटुकारिता करेंगे जबतक इन्हें तुमसे कुछ ( पराग ) मिलता है। इसके बाद तो ये स्वप्नमें भी तुम्हें दिखाई न देंगे । मंजु 'विशेषण यहाँ विशेष अर्थ रखता है । अर्थात् ये तुमसे ऐसी बातें करते हैं जो तुम्हें सुननेमें मधुर लगें, भलेही उनसे तुम्हारा हित न होता हो । For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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