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भामिनी-विलासे किन्तु सभी ऐसे नहीं होते। कुछ ऐसे भी सच्चे और वास्तविक मित्र होते हैं जो बिना किसी अपेक्षाके बहुत बड़ा उपकार करते हैं । जैसे यह पवन बिना किसी लोभके दशों दिशाओंमें तुम्हारी गन्धको प्रसारित करता है। अतः यही अनुपम मित्र है ऐसा तुम्हें समझना चाहिये।
इसमें अन्योक्तिके सिवा भेदकातिशयोक्ति भी अलंकार है। "भेदकातिशयोक्तिस्तु तस्यैवान्यत्ववर्णनम्' (-कुवलया०)। यह मालिनी छन्द है
'न न म य य युतेयं मालिनी भोगिलोकैः (-वृत्त० ) इसमें ८, ७ पर विराम होता है ।
मालिनी कोमल छन्द है । इस पद्यमें एक मित्रकी भांति उचित सलाह. दी गयी है । अतः छन्दका औचित्य स्पष्ट है ॥ ४ ॥ महान् की महनीयताको समझें
समुपागतवति दैवादवहेलां कुटज मधुकरे मा गाः। मकरन्दतुन्दिलानामरविन्दानामयं महामान्यः ॥५॥
अन्वय--कुटज ! दैवात् , समुपागतवति, मधुकरे, अवहेला, मा गाः, अयं मरकन्दतुन्दिलानाम् , अरविन्दानां, महामान्यः । __शब्दार्थ-कुटज = हे कुटज वृक्ष ! दैवात् = भाग्यवश । मधुकरे = भौंरेके। समुपागतवति समीपमें आनेपर। अवहेलां = तिरस्कार । मा गाः = मत दिखाना। अयम् = यह । मकरन्दतुन्दिलानां = परागसे भरे हुए । अरविन्दानां=कमलोंका । महामान्यः = अत्यन्त पूज्य है।
टीका-हे कुटज = हे वत्सकवृक्ष ! (कूटे जायते, कूठ /जनी प्रादुर्भावे + ड: 'पृषोद०' ) दैवात् = भाग्यवशात् ( दैवं दिष्टं भागधेयं भाग्यं-इत्यमरः )। समुपागतवति = समीपमभिसर्पति । मधुकरे मधुसंचयशीले भ्रमरे । अवहेलाम् अवज्ञा । मा गाः = तस्यावमाननं
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