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भामिनी - विलास
है, और उसकी वह कृति ही काव्य है । जो कवि अनुभूतियोंकी जितनी अधिक गहराई तक पहुँचता है और जिसकी वर्णनामें जितनी अधिक स्वाभाविकता होती है वह उतना ही अधिक पाठकके हृदयमें अपना स्थान बना लेता है ।
मुक्तक-काव्य
काव्य के दो प्रकार हो सकते हैं-गद्य और पद्य । गद्यकी अपेक्षा पद्य काव्य अधिक रुचिकर और प्रभावक होता है; क्योंकि कलात्मकता लानेमें छन्द अत्यन्त उपयोगी होते हैं । संस्कृत-साहित्य अत्यन्त मर्यादापूर्ण साहित्य है । इसमें प्रत्येक परिस्थितिके लिये कुछ न कुछ मर्यादा अवश्य बनी हुई है । उससे बाहर संस्कृतका कवि जा ही नहीं सकता । वह निरंकुश हो सकता है; किन्तु उस निरंकुशता की भी सीमा है । काव्यके सौन्दर्य में वृद्धि के हेतु वह उसी सीमातक जाता है । इस सीमाके अन्तत काव्यके जितने भेद हो सकते हैं उनमें मुक्तक भी एक है ।
मुक्तकका स्वरूप हमें सर्वप्रथम अग्निपुराण में मिलता है-
"मुक्तकं श्लोक एकैक चमत्कारक्षमं सताम् ।"
अर्थात् मुक्तक वह काव्य है जिसमें एक-एक श्लोक स्वतंत्र रूपसे अपने अर्थ प्रकाशनमें पूर्णं समर्थ होकर सहृदयोंके हृदय में चमत्कारका आधायक हो । अग्निपुराणके अनन्तर भी प्रायः सभी काव्यशास्त्रप्रतिपादकोंने इसका यही रूप स्वीकार किया है । ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन - " मुक्तकेषु प्रबन्धेष्विव र सबन्धाभिनिवेशिनः कवयो दृश्यन्ते" इस अंशकी व्याख्या करते हुए 'लोचन' - कार श्री अभिनवगुप्त कहते हैं
"मुक्तमन्येनालिङ्गितम् । तस्य संज्ञायां कन् । तेन स्वतन्त्रतया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि प्रबन्धमध्यवर्ती मुक्तकमित्युच्यते ।" किन्तु इसमें यह सन्देह रह जाता है कि मुक्तक प्रबन्ध मध्यवर्ती कोई
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