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अन्योक्तिविलासः
१५९ अन्वय-मर्कटः, केन, अपि, अज्ञन, वक्षसि, दत्तं, हारं, लेढि, जिघ्रति, संक्षिप्य, च, आसनम् , उन्नतं, करोति ।
शब्दार्थ-मर्कट: = बन्दर । केनापि अज्ञेन = किसी भी मूर्ख द्वारा। वक्षसि दत्तं = पहिनाये हुए । हारं = हारको । लेढि = चाटता है । जिघ्रति = सूंघता है। संक्षिप्य च = और मोड़कर । आसनम् = आसनको । उन्नतं करोति = ऊँचा कर लेता है ( अर्थात् उसपर बैठ जाता है )। ____टीका-मर्कटः = कपिः । केनापि । अज्ञेन = मूर्खेण, विवेकरहितेनेतियावत् । वक्षसि = उरसि, दत्तम् = अर्पितम्, हारम् = मुक्तावली ( हारो मुक्तावली देवच्छन्दोऽसौ-अमरः ) लेढि = आस्वादयति, जिघ्रति = नासिकया तदाघाणं करोति । अनन्तरं । संक्षिप्य = सूत्रानिष्कासनेन राशीकृत्य । स्वकीयम् आसनम् = आधारम् । उन्नतम् = उच्चतरं । करोति । तदुपरि उपविष्टः स्वमुच्चासनस्थं मनुते इत्यर्थः । ___ भावार्थ-बन्दर किसी मूर्ख द्वारा गलेमें पहिनाये हुए मुक्ताहारको पहिले चाटता है, फिर सूघता है और तव एक एक करके निकालता हुआ ढेर बनाकर गद्दी ऊँची बना लेता है।
टिप्पणी-सज्जन ही सद्वस्तुका आदर करना जानते हैं, मूर्खके पास यदि उत्तम वस्तु जायगी तो वह उसका आदर तो क्या, उलटे उसे नष्ट कर डालेगा, इसी भावको लेकर इस पद्यकी रचना हुई है । मूर्ख तो विवेकशून्य होता ही है, किन्तु उसका भी सज्जनके समान आदर करनेवाला और भी विवेकशून्य है । ऐसे ही किसी अज्ञने बन्दर के गले में मोतियोंका हार पहिना दिया। वह न तो उसके गुणको समझ सकता है न मल्यको । खाद्य पदार्थ समझकर वह पहिले उसे चाटता है, कुछ रस न मिला तो पशु-स्वभावके कारण सूंघता है, जब गन्ध भी न मिली तो एक-एक करके समेट कर ढेर बनाता है और उस पर बैठकर ऊँचे में बैठनेका अनुभव करता है।
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