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भामिनी-विलासे
= अच्छा आचरण करता है ( क्षुद्रका जो आदर करता है)। सः = वह। व्योमनि = आकाशमें । वासं कुरुते - महल बनाता है। सलिले - पानीमें । यत्नतः = प्रयत्नपूर्वक । चित्रं निर्माति = चित्रकारी करता है। पवनं = वायुको । सलिल:=जलोंसे । स्नपयति = स्नान कराता है। - टीका-यः = जनः । क्षुद्र = अल्पे जने, सत्करणं सत्कारः तम् सत्कारं = आदरं, चरति = करोति । स व्योमनि - आकाशे । वासं कुरुते = शून्ये गृहं निर्मातीत्यर्थः । सलिले = जले। यत्नतः = प्रयत्नपूर्वकं । चित्रम् -आलेख्यं । निर्माति = रचयति । तथा । पवनं वायु । सलिलैः = जलः, स्नपयति = स्नानं कारयति । यथा एतत्सर्व व्योमवासाद्यसंभवं तथैव खलजनस्य सज्जनीकरणमप्यसंभवम् ।
भावार्थ-जो क्षुद्र ( खल ) जनको सज्जन बनाना चाहता है वह मानो आकाशमें महल बनाना चाहता है, जलमें रेखा खींचकर चित्र बनाता है और वायुको जलसे स्नान कराता है।
टिप्पणी-जिसका जैसा स्वभाव पड़ जाता है उसे बदलना असंभव है, विशेषकर खलजनोंका। वे पहिले तो प्रसन्न ही नहीं होते, यदि किसी प्रकार प्रसन्न हो भी गये तो उनकी वह प्रसन्नता भी हानिकारक ही होती है--'अव्यवस्थितचित्तानां प्रसादोऽपि भयंकरः । इसलिये जैसे आकाशमें महल बनाना, जल में रेखा खींचकर चित्र बनाना और वायुको स्नान कराना असंभव है, ऐसे ही खलको सज्जन बनाना या उसे सन्तुष्ट रखना भी असंभव ही है। यही पद्यका तात्पर्य है। रसगंगाधरमें यह पद्य निदर्शना अलंकारके उदाहरणोंमें रक्खा है । आर्या छन्द है ।।९३।। योग्य व्यक्ति ही योग्य वस्तुका महत्त्व समझते हैं__ हारं वक्षसि केनापि दत्तमज्ञेन मकटः।
लेढि जिघ्रति संचिप्य करोत्युनतमासनम् ॥१४॥
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