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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५६ भामिनी-विलासे उसकी ओर आशा लगाए रहते हैं, उन्हें निराश कर देता है । मेघको इस अन्योक्ति द्वारा कवि किसी अविवेकी धनिकको फटकार बताता है हे धनमदान्ध ! जो दीन याचक हैं उन्हें तो तुम कुछ देते नहीं, जिन्हें आवश्यकता ही नहीं है उनके लिये उदारता दिखाते हो । तुम्हारी यह निर्विवेकिता स्पष्ट ही है। अप्रस्तुत जलधरके वृत्तान्तसे यहाँ प्रस्तुत किसी धनिकके वृत्तान्तकी प्रतीति होती है अतः अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है । पंडितराजने रसगंगाधरमें इसे अर्थान्तरन्यासका उदाहरण कहा है । किन्तु वहाँका पाठ इस प्रकार हैदीनानामथ परिहाय शुष्कसस्यान्यौदार्य वहति पयोधरो हिमाद्रौ । औन्नत्यं विपुलमवाप्य दुर्मदानां ज्ञातोऽयं क्षितिप भवादृशां विवेकः ।। यह प्रहर्षिणी छन्द है। लक्षण-म्नौजोंगस्त्रिदशयतिः प्रहर्षिणीयम् । ( वृत्त० ) ॥ ९१ ।। सज्जन महिमा गिरयो गुरवस्तेभ्योप्युर्वी गुर्वी ततोऽपि जगदण्डम् । तस्मादप्यतिगुरवः प्रलयेऽप्यचला महात्मानः ।।१२।। अन्वय-गिरयः, गुरवः, तेभ्यः, अपि, उर्वी, गुर्वी, ततः, अपि, जगदण्डम् , तस्मादपि, अतिगुरवः, प्रलये, अपि, अचलाः, महात्मानः। शब्दार्थ--गिरयः = पहाड़। गुरवः = महान् हैं। तेभ्यः अपि = उनसे भी। उर्वी=पृथ्वी। गुर्वी = गुरु ( विशाल ) है । ततः = उससे भी । जगदण्डं = ब्रह्माण्ड ( महान् है )। तस्मात् अपि = उससे भी। अतिगुरवः = अत्यन्त महान् । प्रलयेऽपि = प्रलयकालमें भी। अचला:= स्थिर रहनेवाले । महात्मानः = महात्मा लोग हैं। टीका-गिरयः = पर्वताः । गुरवः = महान्तः, भवन्ति । तेभ्यः = For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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