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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५४ भामिनी-विलासे हलवश हालाहल ( विष ) पीना चाहता है; प्रलयाग्निको अत्यन्त चुम्बन करना चाहता है और प्रत्यक्ष ही भयानक नागराजको आलिङ्गन करनेका प्रयत्न करता है। टिप्पणी-दुर्जनको वशमें करनेकी कल्पना करना ही अपनेको नष्ट करनेकी योजना बनाना है-इस भावको इस पद्य द्वारा व्यक्त किया गया है। इसमें कौतुकेन, प्रकामम् और यतते पद विशेष अर्थ रखते हैं । संसार जानता है कि हालाहल पीनेसे मृत्यु हो जाती है, किन्तु फिर भी अनजाने या किसीके दबावमें आकर नहीं, प्रत्युत कौतुक ( उत्कण्ठा )-से पीना चाह रहा है। इसी प्रकार साधारण अग्नि भी छूते ही जला देती हैं, फिर. कालानल (प्रलयाग्नि ) की तो बात ही क्या ? उसे भी वह प्रकाम ( अत्यन्त ) चुम्बन करना चाहता है और नागराजसे, जो कि पास जाते ही डस देगा, लिपट जानेका प्रयत्न कर रहा है। भला, इतनी बड़ी मूर्खताएं जो कर सकता है वही, समझो कि दुर्जनको वशमें करनेकी सोच सकता है । अन्यथा इस असम्भव कार्यकी कल्पना भी नहीं करनी चाहिए। ___इस पद्यमें विष पीना चाहता है, प्रलयाग्निको चुम्बन करना चाहता है और नागराजका आलिंगन करना चाहता है, ये तीनों वाक्य असंभव अर्थके बोधक हैं और विषपानादिकी तरह दुर्जनको वशमें करना भी असंभव है, इस उपमाकी कल्पना करनी पड़ती है अतः मालानिदर्शना अलंकार है । लक्षण-अभवन्वस्तुसंबन्ध उपमापरिकल्पकः (काव्य०) । रसगंगाधरमें भी निदर्शना अलंकारके उदाहरणोंमें ही यह पद्य लिखा गया है । वसन्ततिलका छन्द है ॥९०॥ दानमें पात्रापात्रविवेक आवश्यक हैदीनानामिह परिहाय शुष्कसस्या न्यौदार्य प्रकटयतो महीधरेषु । For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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