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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५२ भामिनी-विलासे उस । वदान्यगुरवे = दाताओंमें श्रेष्ठ । तरवे = वृक्षके लिये । नमोऽस्तुनमस्कार है। टीका-यः = वक्ष्यमाणगुणगणः तरुवरः । अन्येषां यत् सुखं तस्य । हेतोः = कारणात्, कुसुमानि = पुष्पाणि च पत्राणि च फलानि च कुसुमपत्रफलानि तेषा मवल्यः = श्रेणयः तासां । भरं = भारं । धत्ते वहति । धर्मस्य या व्यथा तां धर्मव्यथाम्-आतपकष्टं । शीतेन भवतीति शीतभवा तांशत्यजन्यां । रुजम् = आमयं, च वहति = सहते इत्यर्थः । देहं = स्वशरीरं च । अर्पयति = ददाति । परस्मै इन्धनाद्यर्थमित्यर्थः । तस्मै = एवंभूताय । वदान्यानां = दातॄणां गुरुः = शिक्षकः तस्मै, तरवे=वृक्षाय नमः अस्तु। ___भावार्थ-जो दूसरोंको सुख देनेके लिये पुष्प, पत्र और फलोंका भार वहन करता है, प्रचण्ड आतप और शीतजन्य रोगों एवं कष्टोंको सहता है, इन्धनादिके निमित्त अपना देह भी अर्पण कर देता है, ऐसे, दाताओंको दातृत्व सिखानेवाले वृक्षराजके लिये नमस्कार है। टिप्पणी- इस वृक्षान्योक्ति द्वारा कविने परोपकारपरायणको ही सर्वश्रेष्ठ बताया है। वृक्षको वदान्यप्रवर न कहकर वदान्यगुरु कहा है, इसमें उक्त गुणोंका गुरुमें समावेश करके अर्थान्तरसे गुरुके लिये भी प्रणति व्यक्त होती है। जिसप्रकार वृक्ष कुसुमपत्रफलभारको वहन करता है। वृक्ष आतप एवं शीतजन्य व्यथाओंको सहता है, गुरुभी दुष्टोंके द्वारा दिये गये क्लेशोंको सहन करता है। वृक्ष इन्धनादिरूपसे अपनी देहको दूसरोंके लिये अर्पण करता है, गुरु भी आत्मविद्यारूप सर्वस्वको शिष्योंके लिये उत्सर्ग कर देता है । इसप्रकार समान गुणवत्तया दोनों वन्द्य हैं। ___इस पद्यमें प्रणतियोग्य वदान्यगुरुत्वका समर्थन भारवहन, रुजसहन और देहार्पणरूप अर्थसे किया गया है, अतः काव्यलिङ्ग अलंकार है । वसन्ततिलका छन्द है ॥८९।। For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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