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अन्योक्तिविलासः भाँति ही है उसको स्वप्नमें भी यशःप्राप्ति नहीं हो सकती। जहाँ अग्नि हो वहाँ शीतलता टिक नहीं सकती, ऐसे ही खलको कभी शान्ति नहीं मिलती । आकाशमें कभी फूल नहीं खिलते, इसी प्रकार करुणारूप पुष्पके लिये खल भी आकाश ही है अर्थात् उसके हृदयमें कभी भी करुणाका संचार हो नहीं सकता। इसलिये वह निरन्तर सज्जनोंको दुःखदायी
यशको सुगन्ध, शान्तिको शीतलता और कारुण्यको कुसुमका रूप दिया गया है, अतः रूपक अलङ्कार है तथा खलकी लसुन, वह्नि और आकाशसे उपमा अर्थतः प्रतीत होती है अतः लुप्तोपमा भी है। इस प्रकार दोनोंकी संसृष्टि हुई है । अनुष्टुप छन्द है ।।८८॥ परोपकारी सर्वश्रेष्ठ हैधत्ते भरं कुसुमपत्रफलावलीनां
धर्मव्यथां वहति शीतभवां रुजं च । यो देहमर्पयति चान्यसुखस्य हेतो
स्तस्मै वदान्यगुरवे तरवे नमोऽस्तु ॥८६॥ अन्वय-अन्यसुखस्य, हेतोः, यः, कुसुमपत्रफलावलीनां, भरं, धत्ते, धर्मव्यथां, शीतभवां, रुजं, च वहति, देहम् , अर्पयति, वदान्यगुरवे, तस्मै, तरवे, नमोऽस्तु ।
शब्दार्थ-यः = जो। अन्यसुखस्य हेतोः = दूसरोंके सुखके लिये । कुसुमपत्रफलावलीनां = फूल, पत्ते और फलसमूहके । भरं = भारको । धत्ते = धारण करता है । धर्मव्यथां = घामके कष्टको । शीतभवां = शीतसे होनेवाली। रुजं च = व्यथाको भी। वहति = सहता है। देहं = शरीरको । ( इन्धनादि रूपमें ) अर्पयति = समर्पण कर देता है। तस्मै =
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