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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४८ भामिनी - विलासे पवनः स इव । यथा मारुतः वह्नि दीपयत्येव न तु शमयति तथैवायमपि खलः परदुःखरूपमग्निं वर्द्धयत्येव नतु शमयतीति लक्षणया विरोधित्वम् । एवंभूतः, खलः केन = जनेन वर्ण्यताम् = कथ्यताम् । भावार्थ- - सज्जनरूप रूईकी रक्षाके विषयमें अग्निसदृश और दूसरोंके दुःखरूप अग्निकी शान्तिके विषयमें वायुसदृश खलका कौन वर्णन करे । टिप्पणी -- यहाँ रक्षण और शमन शब्दों में विरोधी लक्षणा है । मुख्य अर्थका बाध करके जहाँ अन्य अर्थ की प्रतीति हो, उसे लक्षणा कहते हैं । वह प्रतीत होनेवाला अर्थं यदि मुख्य अर्थका विरोधी हो तो वह विरोधी लक्षणा कहलाती है । " सज्जनरूप रूईकी रक्षामें अग्निके सदृश और परदुःखरूप अग्निकी शान्तिमें वायु सदृश" इस वाक्यमें अग्निसे रूई की रक्षा और मारुतसे अग्निका शमन असम्भव है । अतः रक्षणका दहन और शमनका दीपन अर्थ में पर्यवसान करना पड़ता है । क्योंकि ये ही उनके स्वाभाविक गुण हैं जो मुख्य शब्दार्थ के नितान्त विरोधी हैं । अतः यह विरोधी लक्षणा हुई । तात्पर्य यह है कि खल, सज्जनरूप रूईके लिये अग्नि, और परदु:खरूप अग्निके लिये पवन है, अतः उसका वर्णन कौन करे । इस पद्य में सज्जनको रूई और खलको अग्नि रूपमें वर्णित किया गया है अतः रूपक अलङ्कार है । लक्षण - तद्रुपकमभेद य उपमानोपमेपयोः ( काव्यप्रकाश ) । यहाँ खल और सज्जन उपमेय हैं अग्नि और कार्पास उपमान । अनुष्टुप् छन्द है ॥ ८६ ॥ परगुह्यगुप्तिनिपुणं गुणमयमखिलैः समीहितं नितराम् । ललिताम्बरमिव सज्जनमाखव इव दूषयन्ति खलाः || ८७|| For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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