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अन्योक्तिविलासः
१४५ चिन्ताग्निज्वालाभिरित्यर्थः । न चुम्बितम् अन्तःकरणं येषां ते अचुम्बितान्तःकरणाः = अस्पृष्टमतयः पद्भ्याम् पिबन्तोति पादपाः = वृक्षाः । साधु = शोभनं यथास्यात्तथा, जीवन्ति = वर्तन्ते ।
भावार्थ-अपने कल्याणके लिये दूसरोंकी आशारूप असीम चिन्तानलकी लपटोंसे जिनके अन्तःकरण अछूते रहते हैं, वे वृक्ष ही धन्य जीवन व्यतीत करते हैं।
टिप्पणी-पहिले बता चुके हैं कि अकारण दूसरोंका उपकार करनेवाले सज्जन विरले ही होते हैं । सामान्यतः मनुष्यका स्वभाव होता है कि वह कोई भी कार्य करनेसे पूर्व यह सोच लेता है-इस कार्यको करनेसे मेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा । "प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते ।" अपनी प्रयोजनसिद्धिके लिये जब हम दूसरोंके पास जाते हैं तो हमें चिन्ताओंका होना स्वाभाविक है। अमुक व्यक्ति हमारा काम करेगा या नहीं ? यदि करेगा तो बदलेमें हमसे क्या चाहेगा ? यदि उसने कुछ भी न चाहा तो हम उसके उस उपकारका बदला कैसे चुकाएँगे ? यदि नहीं चुकाएँगे तो उसके ऋणी रह जाएँगे, आदि । ये चिन्ताएँ ही मनुष्यको नष्ट कर डालती हैं,इसलिये इन्हें अग्निका रूप दिया है।
तुलना०-"चिता दहति निर्जीवं चिन्ता दहति सजीवकम्" जंगलमें उत्पन्न होनेवाले वृक्ष अपने स्वार्थ-साधनकी इन चिन्ताओंसे मुक्त रहते हैं अतः उनका जीवन धन्य है। पादप शब्द स्वावलम्बिताका बोधक है। अर्थात् दूसरोंके भरोसे जीनेवाले हम मानवोंकी अपेक्षा अपने पैरोंपर खड़े रहनेवाले ये वृक्ष ही धन्य हैं। यही इस वृक्षान्योक्तिका तात्पर्य है।
इस पद्यमें प्रस्तुत वृक्षकी प्रशंसा द्वारा अप्रस्तुत स्वावलम्बी सज्जनकी प्रशंसा व्यक्त होती है, अतः अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है। अनुष्टुप छन्द है ॥८४॥
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