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भामिनी-विलासे टिप्पणी-जो व्यक्ति जितना गुणवान् होता है लोग उसे उतनाही अधिक परेशान करते हैं। क्योंकि गुणहीनके पास कोई जायेगा ही क्यों ? उससे किसीके उपकारकी तो आशा ही नहीं हो सकती। लोगोंसे सताये गये खिन्न गुणवान्की यह उक्ति है। इसीको अर्थान्तरसे पुष्ट किया हैजैसे वनमें वृक्ष तो अन्य भी होते हैं; किन्तु अत्यन्त सुगन्धिमान् होनेसे लोग चन्दनको ही टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं । अर्थात् उसका सुगन्धिगुण ही उसके लिये बारवार काटे जानेका कारण बन जाता है । ___ इस पद्यमें टीकाकार अच्युतरायने नैर्गुण्यका अर्थ अद्वैतब्रह्मत्व और गुणगौरवका अर्थ सत्त्वादिगुणोंका प्रपंच मानकर श्लेष अलंकार माना है । पण्डितराजने इसे रसगंगाधर में लेष अलंकारके उदाहरणोंमें रक्खा है । गुणोंकी इष्टसाधनताका दोषरूपसे और दोषोंकी अनिष्टसाधनताका गुण रूपसे जहाँ वर्णन किया जाय वहाँ पर लेश अलंकार होता है । अर्थान्तरन्याससे अनुप्राणित है । अनुष्टुप् छन्द है ॥८३॥
परोपसर्पणामन्तचिन्तानलशिखाशतैः । अचुम्बितान्तःकरणाः साधु जीवन्ति पादपाः ॥४॥
अन्वय-परोप शतैः, अचुम्बितान्तःकरणाः, पादपाः, साधु, जीवन्ति ।
शब्दार्थ-परोपसर्पणानन्त = दूसरोंके पास जानेसे अत्यन्त, चिन्ता नलशिखाशतैः = चिन्तारूप अग्निकी सैकड़ों ज्वालाओंसे । अचुम्बितान्त:करणाः=जिनके अन्तःकर नहीं छूए गये हैं, वे । पादपाः = वृक्ष । साधु जीवन्ति = अच्छी प्रकार जीते हैं।
टीका-परम् = अन्यं प्रति यत् उपसर्पणं = गमनं, तेन अनन्ताः = असीमा याः चिन्ताः ता एव अनलः =अग्निः, तस्य शिखानाम् = अलातानां शतानि, तैः = स्वीययोगक्षेमार्थ परं प्रति गमनेनोत्पन्नासीम
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