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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४२ भामिनी-विलासे टोका-वेदान्ते = तत्वावबोधके शास्त्रे। निष्णातः = नितरां स्नातः पारङ्गत इत्यर्थः। अपि । दुर्जनः = खलः । साधुत्वं = सज्जनतां । न । एति = गच्छति । चिरं दीर्घकालं यावत् । जलनिधौ = समुद्रे । मग्नः = बुडितः। मैनाकः = तदाख्यः पर्वतः, मृदोर्भावः माईवम् = कोमलत्वम् इव । भावार्थ-वेदान्त में पारंगत होनेपर भी दुर्जन, सज्जन नहीं हो जाता। जैसे दोर्घकालतक समुद्रमें डूबा हुआ भी मैनाक पर्वत पिघल नहीं जाता। टिप्पणी-शास्त्रोंको रटकर विद्वत्ता बघार लेना आसान है; किन्तु उसीको व्यवहारमें भी चरितार्थ कर दिखाना टेढ़ी खीर है। फिर सज्जनता और दुर्जनता तो नैसर्गिक देन है । जिसके जैसे संस्कार बन जाते हैं उन्हें बदल देना असम्भवप्राय है। इसी भावको इस पद्यद्वारा व्यक्त किया गया है। शास्त्रोंका निरन्तर अध्ययन करते रहनेसे मनुष्य वेदान्त जैसे गहनशास्त्रमें भी निष्णात हो सकता है; किन्तु स्वाभाविक दुर्जनता तो सज्जनतामें तभी बदल सकती है जबकि संस्कार ही बदल जायँ। जैसे मैनाकपर्वत सदा जलमें डूबा रहता है; किन्तु फिर भी वह गलता नहीं। किसी भी पर्वतमें रहनेवाली कठोरता उसमें ज्योंकी त्यों रहती है, क्योंकि वह उसका स्वाभाविक गुण है । पुराणोंमें प्रसिद्ध है कि पर्वतोंको पहिले पंख होते थे और वे पक्षियोंकी भाँति ही जहाँ-तहाँ उड़ जाया करते थे। इससे बड़ी हानि होती थी। अतः इन्द्र ने अपने वज्रसे इनके पंख काट डाले। इन्द्रकी डरसे मैनाक पर्वत समुद्रमें छिप गया और तब से वहीं है । ___ इस पद्य में पण्डितराजने अवज्ञा अलंकार माना है। रसगंगाधरमें उल्लास अलंकारका विवेचन करनेके वाद वे अवज्ञाका लक्षण करते हैंतद्विपर्ययोऽवज्ञा अर्थात् किसीके गुणों या दोषोंका प्रसंग रहने पर भी For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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