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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अन्योक्तिविलासः १४१ निर्मलबुद्धि, अद्वैतप्रतिपादक शास्त्र और तत्वावबोध ही आवश्यक साधन हैं । अर्थात् हरिपाद पद्म भजनादिके द्वारा ही धर्मादिकी प्राप्ति हो सकती है, किन्तु यह तभी होता जब कि इनमें विघ्न करनेवाले शत्रु – दुर्वासनासमूहको नष्ट कर दिया जाय । जब तक दुर्वासनाएँ रहेंगी तब तक मनुष्य न तो भगवद्भजन ही सफलतापूर्वक कर सकेगा, न उसकी बुद्धि ही निर्मल रह पायेगी, न शास्त्र ही उसके द्वैतभावको नष्ट करनेमें समर्थ होगा और न उसे तत्वावबोध ही हो सकेगा । यदि यह सब न हुआ तो पुरुषार्थ-चतुष्टयकी प्राप्ति भी असंभव ही है इस पद्य में स्पष्ट किया है । । इसीको प्रश्नोत्तर रूपमें Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस पद्यको पंडितराजने रसगंगाधरमें परिसंख्या अलंकारका उदाहरण माना है । लक्षण – सामान्यतः प्राप्तस्य अर्थस्य कस्माचिद्विशेषाद् व्यावृत्तिः परिसंख्या । अर्थात् सामान्यतः प्राप्त अर्थ को किसी विशेष अर्थसे रोक देना, जैसे, हरिषादपद्म-भजन ही तीर्थ है, अन्य नहीं आदि । शार्दूलविक्रीडित छन्द है ॥ ८१ ॥ www. स्वभाव नहीं बदलता निष्णातोऽपि च वेदान्ते साधुत्वं नैति दुर्जनः । चिरं जलनिधौ मग्नो मैनाक इव मार्दवम् ||८२॥ अन्वय- वेदान्ते, निष्णातः, अपि, दुर्जनः, साधुत्वं, न एति, चिरं, जलनिधौ, मग्नः, मैनाकः, माईवम् इव । शब्दार्थ –वेदान्ते = वेदान्त शास्त्रमें । निष्णातः अपि = निपुण भी । दुर्जन: = खल व्यक्ति । साधुत्वं - सज्जनताको । न एति = नहीं प्राप्त होता । चिरं = दीर्घकालतक | जलनिधी = समुद्रमें । मग्नः = - डूबा हुआ | मैनाक: = मैनाक पर्वत । मार्दवम् इव = कोमलताको जैसे ( नहीं प्राप्त होना । ) For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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