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अन्योक्तिविलासः
१३९ टिप्पणी-जो जैसी प्रकृतिका है उसके सभी कार्योंका वैसाही होना स्वाभाविक है। इसी भावको बन्दरकी इस अन्योक्तिद्वारा व्यक्त किया है। जहाँ सज्जन एकत्र होंगे वहाँ वातावरण भी सभ्यताका होगा, तब सभा ही बन्दरों ( मूल् ) की हुई तो उनसे सिवा मूर्खताके और आशा ही क्या की जा सकती है। पण्डितराजने इसे सम अलंकार माना है। सम विषमका ही उलटा है। अननुरूप संसर्ग होने पर विषम अलंकार होता है तो अनुरूप संसर्ग होनेपर सम अलंकार होगा। यहां भी बन्दरोंकी सभामें जैसा होना चाहिये वही हो रहा है, अतः अनुरूप संसर्ग हुआ। उपजाति छन्द है ।। ८० ॥ प्रश्नोत्तरकिं तीर्थ ? हरिपादपद्मभजनं, किंरत्नमच्छा मतिः, कि शास्त्रं ? श्रवणेन यस्य गलति द्वैतान्धकारोदयः । किं मित्रं ? सततोपकाररसिकं तत्त्वावबोधः सखे ! कः शत्रुर्वेद ? खेददानकुशलो दुर्वासनानां चयः ॥८१॥ __ अन्वय-सखे ! वद, तीर्थ किं ? हरिपादपद्मभजनं, रत्नं किं ? अच्छा मतिः, शास्त्रं किं ? यस्य, श्रवणेन, द्वैतान्धकारोदयः, गलति, सततोपकाररसिकं, मित्रं किं ? तत्त्वावबोधः, शत्रुः कः ? खेददानकुशलः, दुर्वासनानां, चयः।
शब्दार्थ-सखे वद=हे मित्र कहो ! तीर्थ किं = तीर्थ क्या है ? हरिपादपद्मभजनं = भगवान्के चरणकमलोंकी सेवा (ही तीर्थ है )। रत्नं किं = रत्ल क्या है ? अच्छा मतिः = निर्मलबुद्धि (ही उत्तम रत्न है)। शास्त्रं किं = शास्त्र क्या है ? यस्य श्रवणेन = जिसको सुननेसे । द्वैतान्धकारोदयः = द्वैतरूप अन्धकारका समूह । गलति = नष्ट हो जाता
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