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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ भामिनी-विलासे भावार्थ-जो दूसरोंकी भलाईके लिये अपने स्वार्थको छोड़ देता है, निरन्तर गुणीजनोंके साथ अभिन्नताका व्यवहार रखता है, जिसके अन्तःकरणमें स्वभावसे ही उदारताकी सुन्दर महिमा स्फुरित होती है और जो सब कर्मोंमें समर्थ है, उस अद्भुत प्रभावशाली व्यक्तिकी जय हो। टिप्पणी-यह सामान्यतया सज्जनपुरुषकी प्रशंसा है। पहिले विशेषणसे सज्जनकी परमगुणज्ञता, तीसरेसे उदाराशयता और चौथेसे अद्भुत प्रभावशालित्व व्यक्त होता है। ऐसे व्यक्ति सबका कल्याण ही चाहते हैं चाहे दुर्जन हो या सुजन । यह पद्य रसगंगाधरमें समासोक्ति अलंकारके उदाहरणोंमें पढ़ा गया है। समासोक्ति अलंकार वहाँ होता है जहाँ कार्य, लिङ्ग और विशेषणोंके द्वारा प्रस्तुतमें अप्रस्तुतके व्यवहारका आरोप किया जाय । यहाँ प्रस्तत सज्जनके व्यवहारमें अप्रस्तुत तत्पुरुषसमासके व्यवहारका आरोप किया है। जैसे 'राज्ञः पुरुषः' ( राजाका पुरुष ) यह तत्पुरुष समास है । इसमें 'राजा' और 'पुरुष' ये दोनों शब्द अपने-अपने अर्थ (स्वार्थ ) को छोड़ देते हैं। क्योंकि राजपुरुष न तो राजा ही है न (सामान्य) पुरुष ही । 'राजसेवामें तत्पर पुरुप' यह परार्थ है जिसके लिये ये दोनों शब्द स्वार्थत्याग करते हैं। अभेदैकत्वं जहाँ भिन्न-भिन्न संज्ञाएँ अभेदेन एक ही राजशब्दमें संनिविष्ट हैं । अर्थात् राज्ञः पुरुषः, राज्ञोः पुरुषः, राज्ञां पुरुषः तीनों विग्रहोंसे 'राजपुरुषः' यही होता है। यही राजशब्द गुणभूत है। क्योंकि तत्पुरुषमें उत्तरपद प्रधान होता है, सुतरां पूर्वपद विशेषण होनेसे गौण हो जायगा। उदात्तमहिमा-सभी शब्दोंके उदात्तादि तीन स्वर होते हैं, किन्तु “समासस्य" (६।१।२२३पा०) सूत्रसे समासमें अन्तोदात्त ही होता है। यः नित्यं समर्थः परस्पर जिनका अन्वय हो सकता है वे समर्थ शब्द कहलाते हैं। जैसे "राज्ञः अवलोकयति पुरुषः" इसमें न तो राज्ञः का अवलोकयतिके साथ अन्वयसम्बन्ध हो सकता है न पुरुषः का। अतः “समर्थः पदविधिः” ( २०११ पा० ) इस नियमसे इसमें समास नहीं होगा, किन्तु राजपुरुषः में राज्ञः और पुरुषः For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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