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अन्योक्तिविलासः
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भी हो तो वह उन गुणोंमें ढक जाता है। दूसरे शब्दोंमें जो सर्वदा भलाई ही करता है उससे यदि कोई बुराई भी हो गयी तो वह भी अच्छी ही लगती हैं ; इसी भावको इस पद्यद्वारा स्पष्ट किया गया है। जैसे लोकमोहक सुगन्धसे परिपूर्ण कुंकुमकी कड़वाहट भी अच्छी लगती है वैसे ही सकलगुणनिधान सज्जनोंका रोष भी लाभदायक ही होता है । __तुलना०-"एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेविवाङ्कः” ( कालिदास ) । उक्त पद्यको भी रसगङ्गाधरमें प्रतिवस्तूपमा अलंकार के उदाहरणोंमें पढ़ा गया है । वसन्ततिलका छन्द है ॥६९।। पल्लवग्राही पाण्डित्य विद्वानोंके सामने नहीं टिकता--- लीलालुण्ठितशारदापुरमहासम्पराणां पुरों विद्यासद्मविनिर्गलत्कणमुषों वल्गन्ति चैत्पामराः। अद्य वा फणिनां शकुन्तशिशवों दन्तावलानां शशाः सिंहानां च सुखेन मूर्द्धसु पदं धास्यन्ति शालावृकाः ॥७०॥
अन्वये विद्यासन मुषः, पामराः, लीला भराणां, पुरः, वल्गन्ति, चेत्, अद्य, श्वे, वा, फणिनां, मूर्द्धसु, शकुन्तशिशवः, दन्तावलानां, शशाः, सिंहानां, च शालावृकाः, सुखेन, पदं, धास्यन्ति ।
शब्दार्थ-विद्यासद्म = विद्याके आवासभूत ( जो विद्वानोंके मुख, उनसे ), विनिर्गलत् = निकलते हुए । ( शब्दोंके ) कणं = छोटे-छोटे टुकड़ों ( पदों ) को, मुषः = चुरानेवाले। पामराः = नीच । लीलालुण्ठित = अनायास ही लूट लिया है, शारदापुरमहासम्पद्भराणां = सरस्वतीके नगरसे महान् सम्पत्तिके भारोंको जिन्होंने, ऐसे ( अर्थात् उत्कृष्ट पाण्डित्यवाले ) विद्वानोंके । पुरः = सामने । वल्गन्ति चेत् = यदि उछलते हैं तो । अद्य =
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