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पण्डितराज जगन्नाथ किया है फिर भी श्रीमधुसूदन सरस्वतीके भक्ति-विषयक सिद्धान्तको ये आदरकी दृष्टिसे देखते हैं। श्रीमद्भागवत तथा वेदव्यासपर इनकी अत्यन्त श्रद्धा है। इसी भक्तिके कारण ही ये जीवनके अन्तिम दिनोंमें मथुरामें रहते थे। संस्कृत-साहित्यको पण्डितराजकी देन
हम पहिले कह चुके हैं कि साहित्यशास्त्रके विकासको दृष्टिसे पण्डितराज अन्तिम आलंकारिक हैं और उनका रसगंगाधर इस विषयका अन्तिम ग्रन्थ । अपने पूर्ववर्ती साहित्यविवेचकों-अग्निपुराण, दण्डी, रुद्रट, वामन, आनन्दवर्धन, भोज, मम्मट, वाग्भट्ट, जयदेव, विश्वनाथकी पाण्डित्यपूर्ण आलोचना करते हुए पण्डितराजने साहित्यशास्त्रको एक नया मोड़ दिया है। "रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्" यह काव्यकी परिभाषा करके उन्होंने बहुत अंशमें अभिनवगुप्तका अनुगमन किया है, किन्तु आँख मूंदकर किसीके पीछे-पीछे चलना उनके स्वभावके अत्यन्त विपरीत है। प्रत्येक बातमें उनका अपना वैलक्षण्य अवश्य
तरणोपायमपश्यन्न पि मामक जीव ताम्यसि कुतस्त्वम् । चेतःसरणावस्यां किं नागन्ता कदापि नन्दसुतः ॥
(शान्त वि० १७) सन्तापयामि किमहं धावं धावं धरातले हृदयम् । अस्ति मम शिरसि सततं नन्दकुमारः प्रभुः परमः
(शान्त वि० २०) ऋतुराजं भ्रमरहितं यदाहमाकर्णयामि नियमेन ! आरोहति स्मृतिपथं तदैव भगवान् मुनिर्व्यासः ॥
( रसगंगाधरमें स्मरणालंकारका उदाहरण ) २. "संप्रत्युज्झितवासनं मधुपुरीमध्ये हरिः सेव्यते" ( शान्त वि० ४५ )
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