________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१२
भामिनी- विलास
रहता है । मम्मटके बाद काव्यशास्त्र के नवीकरणका प्रयास इन्होंने ही किया है और इसमें ये पूर्ण सफल हुए हैं । जिसे रसगंगाधरके प्रारम्भमें ही ये स्वयं व्यक्त करते हैं
निमग्नेन क्लेशैर्मननजलधेरन्तरुदरं
मयोनीतो लोके ललित रसगङ्गाधरमणिः । हरन्नन्तर्ध्वान्तं हृदयमधिरूढो गुणवता -
मलङ्कारान् सर्वानपि गलितगर्वान् रचयतु |
रसगंगाधरका पाठक यह अनुभव करता है कि पण्डितराजकी यह उक्ति पूर्णतः यथार्थ है । वे विलक्षण प्रतिभाशाली विद्वान् होनेके साथ ही अत्यन्त शक्तिसम्पन्न सरस हृदय कवि भी हैं । नैयायिकों की परिष्कृत शैलीमें किसी भी विषयका पाण्डित्यपूर्ण विवेचन करनेके बाद वे तदनुरूप ही उदाहण बनाकर प्रस्तुत कर देते हैं । जिससे आलोचकोंको किसी प्रकार भी उसमें न्यूनता दर्शानेका अवसर नहीं मिलता । काव्यके लक्षणसे लेकर सभी विभागोंका उन्होंने नवीकरण किया है । समयकी गतिके साथ साहित्यशास्त्र के नियमोंमें भी परिवर्तन आवश्यक है, इस सिद्धान्तको पण्डितराजने अच्छी तरह समझा है । मम्मटने रसविषयक चार सिद्धान्तोंका उल्लेख किया था, पण्डितराजने ग्यारह सिद्धान्तोंका विवेचन करनेके बाद "रत्याद्यवच्छिन्ना भग्नावरणा चिदेव रसः " कहकर रस-मीमांसाको जो देन दी है वह अनुपम है । गुणविचार एवं भावध्वनि विमर्श भी उनका अत्यन्त सूक्ष्म और मर्मग्राही है । जहाँ रसभावादिको पूर्ववर्ती आचार्योंने केवल असंलक्ष्यक्रम माना था वहाँ इन्होंने मार्मिक शैलीसे स्पष्ट कर दिया कि ये संलक्ष्यक्रम भी होते हैं ।
पदरचना एवं पदव्यञ्जकता में वे स्वयं जितने निपुण हैं उतनी ही निपुणता से दूसरे कवियों की रचनाओंका परीक्षण और उनका सुधार भी कर सकते हैं । अपने समयके एकछत्र कविसम्राट् श्रीहर्षकी रचना
For Private and Personal Use Only