SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ भामिनी-विलासे एव ( जायतेऽत्र जन्तुर्मलो वा, /जनी प्रादुर्भावे + अरः, ठच्, उणादिः ) समुच्छलति-उत्प्लवनं करोति ।। भावार्थ-हे जलद ! गम्भीर गर्जना बन्द कर दो, क्योंकि यह मेरा एक ही महीनेका गर्भ तुम्हारे गर्जनको उन्मत्त हाथीका शब्द समझकर पेटमें ही उछल-उछल रहा है । टिप्पणी-यह भी पूर्व श्लोककी भाँति ही है। वैशिष्टय केवल इतना ही है कि उसमें सिंहशिशु सचेतन और स्तनंधय था, इसमें अचेतन गर्भावस्थामें ही है, वह भी केवल १ महीनेका। तात्पर्य यही है कि प्रतापी पुरुष असमर्थावस्थामें ( गर्भके बन्धनमें ) भी शत्रुका उत्कर्ष सहन नहीं कर सकते। यह सम्बन्धातिशयोक्ति अलंकार है-"सम्बन्धातिशयोक्तिः स्यादयोगे योगकल्पनम्” ( कुवलया० ) । आर्या छन्द है ॥५९।। शौर्य-प्रदर्शन भी बराबरवालोंसे ही उचित है वेतण्डगण्डकण्डूतिपाण्डित्यपरिपन्थिना। हरिणा हरिणालीषु कथ्यतां का पराक्रमः ॥ ६ ॥ अन्वय–वेतण्ड पन्थिना, हरिणा, हरिणालीषु, कः पराक्रमः, कथ्यताम् । ' शब्दार्थ-वेतण्ड हाथियोंके, गण्ड = कपोलोंकी, कण्डूति = खुजलाहटका जो, पाण्डित्य = कौशल, ( उसके ) परिपन्थिना=शत्रु । हरिणा = सिंहके द्वारा। हरिणालीषु = हरिणपंक्तियोंमें। कः पराक्रमः कथ्यताम् = क्या विक्रम कहा जाय । टीका-वेतण्डाः = गजाः तेषां ये गण्डाः = कपोलाः ( गण्डति, /गडि वदनैकदेशे + अच्, गण्डौ कपोलो-अमरः ) तेषां यत्कण्डूतिपाण्डित्यं%खर्जनकौशलं तस्य यः परिपन्थी प्रतिस्पर्धी तेन एवंभूतेन । For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy