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अन्योक्तिविलासः मुंहा ही क्यों न हो, है तो सिंहशिशु ही । गजोंको वह अपना स्वाभाविक बैरी समझता है इसलिये ध्वनिसाम्यके कारण बादलकी गर्जनाको हाथीकी चिग्घाड़ समझकर उसकी आँखें लाल हो जाती हैं और वह शत्रुको खोजनेके लिये कठोर दृष्टिसे चारों ओर घूरने लगता है । तब दूध पिलाती हुई सिंहिनी उसे वास्तविकताका बोध कराती है। जिसे तुम अपना शत्रु समझकर लाल-लाल आँखें करके दिगन्तोंको घूर रहे हो वह तो त्रिभुवनका तापनिवारक जलद है, हाथी नहीं। अतः शान्त होकर दूध पियो । इससे यह भी ध्वनि निकलती है कि दूसरोंके सन्तापको हरण करनेवाले सज्जनोंपर भूलकर भी क्रोध करना तुहारा निरा लड़कपन या अविवेक ही है ।
इस पद्यमें भ्रान्तिमान् अलंकार और शिखरिणी छन्द है ॥५८॥ तेजस्वी व्यक्ति किसी भी स्थिति में शत्रुका उत्कर्ष नहीं सह सकते
धीरध्वनिभिरलं ते नीरद मे मासिको गर्भः। उन्मदवारणबुद्धया मध्येजठरं समुच्छलति ॥ ५ ॥
अन्वय-नीरद ! ते धोरध्वनिभिः अलं, मे, मासिकः, गर्भः, उन्मदवारणबुद्धया, मध्येजठरं, समुच्छलति ।
शब्दार्थ-नीरद = हे मेघ ! ते = तुम्हारी । धीरध्वनिभिः = गम्भीर गर्जनाओंसे । अलं = बस करो। मे = मेरा । मासिकः गर्भः = एक महीनेका गर्भ । उन्मदवारणबुद्धया = उन्मत्त हाथी समझकर। मध्येजठरं = पेटके भीतर ही । समुच्छलति = उछल रहा है।
टीका-नीरं जलं ददातीति तत्सम्बुद्धी हे नीरद = हे मेध ! ते = तव । धीराश्च ते ध्वनयश्च तैः धीरध्वनिभिः गम्भीरगर्जनैः । अलंपर्याप्तम् । यतः । मे = मम सिंहिन्या इत्यर्थः । मासिकः = मासमात्रावस्थः । गर्भः= भ्रूणः ( गीर्यते इति, /गृ निगरणे + भन् ( उणादिः ), गर्भो भ्रूण इमो समी-अमरः ) उन्मदः = उन्मत्तश्चासो वारणश्च तद्बुद्धथा = उन्मत्तगजभ्रान्त्या। जठरस्यं मध्ये इति मध्येजठरंकुक्षिस्थ
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