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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९६ भामिनी-विलासे प्रत्यहमेव । विधिः = कर्ता दैव इति यावत् । इदं । प्रार्थ्यते = याच्यते । यत् । खाण्डवः = तन्नामकमैन्द्रं वनं तदेव रङ्गो नृत्यभूविशेषः, तस्मिन् यः ताण्डवः-उद्धतनृत्यं तत्र नट इव = नर्तक इव । एवंभूतः । वैश्वानरः = अग्निः ( अग्निर्वैश्वानरो वह्निः-अमरः) दवाग्निरिति भावः । त्वत्तः = त्वत्सकाशात् । दूरे = विप्रकृष्ट एव । अस्तु । त्वं न कदापि दवाग्निसंश्लिष्टः स्याः इत्यर्थः । भावार्थ-हे नन्दन ! तुम स्वर्गलोकके चूड़ामणि हो । कल्पवृक्षादि देवतरुओं के आश्चर्यकारक स्थान हो, इन्द्राणी और इन्द्र के महत्तम पुण्योंके परिणामरूप हो, यह सब कुछ सत्य है । किन्तु सज्जन लोग नित्य यही प्रार्थना करते हैं कि खाण्डवरूप रंगभूमिमें नटकी भाँति ताण्डव नृत्य करनेवाला दवाग्नि तुमसे सदा दूर ही रहे । टिप्पणी-कोई कितने ही उच्च पदको प्राप्त हो, विश्वका बड़े से बड़ा उपकारी हो, अत्यन्त प्रयत्नसे उसका संरक्षण किया जाता हो किन्तु वे दुष्ट उसको नष्ट करनेमें किंचित् भी संकोच नहीं करते जिनका स्वभाव ही दूसरोंको नष्ट करना है। परमात्मा जितने अधिक दिनोंतक ऐसे व्यक्तिको इन दुष्टोंसे बचा सके उतना ही अधिक विश्वका कल्याण होगा । अर्थात् सबप्रकारके सुख और ऐश्वयंका उपभोग करनेवालों को भी भयके कारण बने ही रहते हैं । इसी भावको इस अन्योक्ति द्वारा व्यक्त किया है। नन्दनवन भले ही चूड़ामणिकी भांति स्वर्ग की शोभा बढ़ानेमें सर्वश्रेष्ठ हो, अनुपम और अलभ्य कल्पवृक्षोंका आवास हो, शतक्रतुके पुण्योंके परिणामस्वरूप उसे प्राप्त हुआ हो, किन्तु वनाग्नि जहाँ उसमें प्रविष्ट हुई तो उसे भस्म ही कर डालेगी। इसलिये सज्जन लोग नित्य परमात्मासे प्रार्थना करते हैं कि इस दाहक अग्निका प्रवेश वहाँ कभी न हो; क्योंकि खाण्डव वनमें अग्निकी भीषण करतूतोंको सबने देखा है। यहाँ नन्दनवनमें स्वर्गके चूड़ामणि, कल्पवृक्षोंके सद्म और इन्द्राणी For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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