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भामिनीविलासे भस्मीकृतं = क्षारीकृतं वर्तते । तथापि एतावदापत्सहनावशिष्टा । एषा = परिदृश्यमाना । कोणगता = उद्यानोपान्तदेशावस्थिता । मुहुः = वारंवारं । परिमलैः = स्वामोदः, दिशः = आशाः । आमोदयन्ती = सुरभयन्ती । ललिता = मनोरमा । लवङ्गस्य = देवकुसुमस्य लतिका = वल्ली। (लवङ्ग देवकुसुमम्-अमरः) दावाग्निना = वनवह्निना। साम्प्रतं । दह्यते = भस्मीक्रियते । इति हा अत्यन्तं कष्टम् = खेदविषयमेतत् ।
भावार्थ-वनका कुछ भाग तो उन्मत्त हाथियोंने रौंद डाला, कुछ जाड़ेसे ठिठुरते लोगोंने काट डाला, जो बचा था वह ग्रीष्ममें प्रचण्डसूर्यके भयानक आतपसे झुलस गया । इसपर भी एक कोने में स्थित, यह मनोरम लवङ्गलता जो कि अपनी सुगन्धसे दशों दिशाओंको सुरभित कर रही थी, आज दावाग्निसे जलायी जा रही है यह बड़े दुःखकी बात है।
टिप्पणी-यों तो संसारमें गुणवान् ही प्रायः दुर्लभ होते हैं । यदि कहीं किसी कोने से कोई अपने गुणोंका प्रकाश करना भी चाहे तो दृष्ट लोग उसे नष्ट करनेपर ही तुले रहते हैं, इसी भावको इस अन्योक्ति द्वारा व्यक्त किया है। मत्त मतंगजों, शीतादितों एवं ग्रीष्म प्रचण्ड आतपसे किसी प्रकार अपनी रक्षा करनेके बाद भी मनोहर लवंग-लतिकाको दावाग्नि ने अपनी चपेटमें ले ही लिया। दह्यते यह वर्तमान काल का प्रयोग अपनी असामर्थ्य और सामर्थ्यवानोंसे उसे बचानेका आग्रह सूचित करता है । अर्थात् कष्टका विषय है कि इतनी विपत्तियोंसे बचने पर भी मनोरम लता दावाग्निसे जल रही है, यदि कोई उसे बचा सकता तो वह पुनः अपनी आमोदसे दिशाओंको परिपूरित करती । इस पद्यमें अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है । शार्दूलविक्रीडित छन्द है ॥५४॥ सभीके लिए भयके कुछ न कुछ कारण बने रहते हैंस्वलॊकस्य शिखामणिः सुरतरुग्रामस्य धामाद्भुतं पौलोमीपुरुहूतयोः परिणतिः पुण्यावलीनामसि ।
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